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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    सन्नुच्छि॑ष्टे॒ असं॑श्चो॒भौ मृ॒त्युर्वाजः॑ प्र॒जाप॑तिः। लौ॒क्या उच्छि॑ष्ट॒ आय॑त्ता॒ व्रश्च॒ द्रश्चापि॒ श्रीर्मयि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सन् । उत्ऽशि॑ष्टे । अस॑न् । च॒ । उ॒भौ । मृ॒त्यु: । वाज॑: । प्र॒जाऽप॑ति: । लौ॒क्या: । उत्ऽशि॑ष्टे । आऽय॑त्ता: । व्र: । च॒ । द्र: । च॒ । अपि॑ । श्री: । मयि॑ ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सन्नुच्छिष्टे असंश्चोभौ मृत्युर्वाजः प्रजापतिः। लौक्या उच्छिष्ट आयत्ता व्रश्च द्रश्चापि श्रीर्मयि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सन् । उत्ऽशिष्टे । असन् । च । उभौ । मृत्यु: । वाज: । प्रजाऽपति: । लौक्या: । उत्ऽशिष्टे । आऽयत्ता: । व्र: । च । द्र: । च । अपि । श्री: । मयि ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (उच्छिष्टं) ‘उच्छिष्ट’ नाम सर्वोत्कृष्ट, सर्वोपरि विराजमान, उस परब्रह्म में (सत्) ‘सत्’ या सत्ता के अन्तर्गत समस्त भाव रूप जगत् और (असत्) अभाव रूप या अव्यक्त रूप प्रकृति (उभौ) वे दोनों और (मृत्युः) मृत्यु जो सब प्राणियों को जीवित दशा से शरीर रहित करता है (वातः) अन्न और बल (प्रजापतिः) प्रजा का पालक मेघ सब उसी में विद्यमान हैं। (उच्छिष्टे) उस सर्वोत्कृष्ट पर ब्रह्म में (लौक्याः) समस्त लोकों में विद्यमान प्रजाएं (व्रः च) सबका आवरण करने वाला यह महान् आकाश (द्रः च) और सबका ‘द्र’ अर्थात् द्वावक या गति देने वाला काल भी (उच्छिष्टे आयत्ताः) उसी उत्कृष्ट पर ब्रह्म में बंधे हैं। इसी प्रकार (मयि) मुझ आत्मा में विद्यमान (श्रीः) जो चेतनास्वरूप शोभा है वह भी उसी की है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अध्यात्म उच्छिष्टो देवता। ६ पुरोष्णिग् बार्हतपरा, २१ स्वराड्, २२ विराट् पथ्याबृहती, ११ पथ्यापंक्तिः, १-५, ७-१०, २०, २२-२७ अनुष्टुभः। सप्तविंशर्चं सूक्तम्॥

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