अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
इ॒मं ब॑ध्नामि ते म॒णिं दी॑र्घायु॒त्वाय॒ तेज॑से। द॒र्भं स॑पत्न॒दम्भ॑नं द्विष॒तस्तप॑नं हृ॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम्। ब॒ध्ना॒मि॒। ते॒। म॒णिम्। दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑। तेज॑से। द॒र्भम्। स॒प॒त्न॒ऽदम्भ॑नम्। द्वि॒ष॒तः। तप॑नम्। हृ॒दः ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं बध्नामि ते मणिं दीर्घायुत्वाय तेजसे। दर्भं सपत्नदम्भनं द्विषतस्तपनं हृदः ॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। बध्नामि। ते। मणिम्। दीर्घायुऽत्वाय। तेजसे। दर्भम्। सपत्नऽदम्भनम्। द्विषतः। तपनम्। हृदः ॥२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
विषय - शत्रुनाशक सेनापति दर्भ मणि का वर्णन।
भावार्थ -
हे राजन् और प्रजाजन ! मैं (ते) तेरे (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन और (तेजसे) तेज और पराक्रम के कार्य के लिये (सपत्नदम्भनम्) शत्रुनाशक, (द्विषतः) शत्रु के (हृदः) हृदय को (तपनम्) तपाने वाले (दर्भम्) दुष्टों के हिंसक (मणिम्) मननशील, शिरोमणि पुरुष को (बध्नामि) बांधता हूं, नियुक्त करता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षय कामो ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भमणिर्देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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