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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - दर्भमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भमणि सूक्त

    घ॒र्म इ॑वाभि॒तप॑न्दर्भ द्विष॒तो नि॒तप॑न्मणे। हृ॒दः स॒पत्ना॑नां भि॒न्द्धीन्द्र॑ इव विरु॒जन् ब॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घ॒र्मःऽइ॑व। अ॒भि॒ऽतप॑न्। द॒र्भ॒। द्वि॒ष॒तः। नि॒ऽतप॑न्। म॒णे॒। हृ॒दः। स॒ऽपत्ना॑नाम्। भि॒न्ध्दि॒। इन्द्रः॑ऽइव। वि॒ऽरु॒जन्। ब॒लम् ॥२८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घर्म इवाभितपन्दर्भ द्विषतो नितपन्मणे। हृदः सपत्नानां भिन्द्धीन्द्र इव विरुजन् बलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घर्मःऽइव। अभिऽतपन्। दर्भ। द्विषतः। निऽतपन्। मणे। हृदः। सऽपत्नानाम्। भिन्ध्दि। इन्द्रःऽइव। विऽरुजन्। बलम् ॥२८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (द्विषतः) प्रेम न करने वाले पुरुष के (हृद:) हृदयों को (तापयन्) सन्तप्त करता हुआ, और (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (मनः) मन को सन्तप्त करता हुआ और (सर्वान् दुर्हार्दः) सभी दुष्ट हृदय वाले (अभीन्) भय रहित पुरुषों को भी (धर्म इव) धाम के समान (अभि तपन्) खूब प्रतप्त प्रचण्ड होकर हे (मणे) मननशील नर, रत्न ! (द्विषतः नितपन्) बहुत से शत्रुओं को भी खूब तपाता हुआ (इन्द्र इव) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा के समान या (बलम् इन्द्र इव विरुजन्) मेघ को सूर्य के समान या प्रचण्ड वायु या विद्युत के समान नाना प्रकार से छिन्न भिन्न करता हुआ (सपत्नानां) शत्रुओं के (हृदः) हृदयों को (भिन्धि) भेद और उनके (बलम्) बल-सेना बल को तोड़ डाल॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षय कामो ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भमणिर्देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।

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