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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - दर्भमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भमणि सूक्त

    द्वि॑ष॒तस्ता॒पय॑न्हृ॒दः शत्रू॑णां ता॒पय॒न्मनः॑। दु॒र्हार्दः॒ सर्वां॒स्त्वं द॑र्भ घ॒र्म इ॑वा॒भीन्त्सं॑ता॒पय॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वि॒ष॒तः। ता॒पय॑न्। हृ॒दः। शत्रू॑णाम्। ता॒पय॑न्। मनः॑। दुः॒ऽहार्दः॑। सर्वा॑न्। त्वम्। द॒र्भ॒। घ॒र्मःऽइ॑व। अ॒भीन्। स॒म्ऽता॒पय॑न् ॥२८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्विषतस्तापयन्हृदः शत्रूणां तापयन्मनः। दुर्हार्दः सर्वांस्त्वं दर्भ घर्म इवाभीन्त्संतापयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्विषतः। तापयन्। हृदः। शत्रूणाम्। तापयन्। मनः। दुःऽहार्दः। सर्वान्। त्वम्। दर्भ। घर्मःऽइव। अभीन्। सम्ऽतापयन् ॥२८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (द्विषतः) प्रेम न करने वाले पुरुष के (हृद:) हृदयों को (तापयन्) सन्तप्त करता हुआ, और (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (मनः) मन को सन्तप्त करता हुआ और (सर्वान् दुर्हार्दः) सभी दुष्ट हृदय वाले (अभीन्) भय रहित पुरुषों को भी (धर्म इव) धाम के समान (अभि तपन्) खूब प्रतप्त प्रचण्ड होकर हे (मणे) मननशील नर, रत्न ! (द्विषतः नितपन्) बहुत से शत्रुओं को भी खूब तपाता हुआ (इन्द्र इव) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा के समान या (बलम् इन्द्र इव विरुजन्) मेघ को सूर्य के समान या प्रचण्ड वायु या विद्युत के समान नाना प्रकार से छिन्न भिन्न करता हुआ (सपत्नानां) शत्रुओं के (हृदः) हृदयों को (भिन्धि) भेद और उनके (बलम्) बल-सेना बल को तोड़ डाल॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षय कामो ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भमणिर्देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।

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