अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 8
कृ॒न्त द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे कृ॒न्त मे॑ पृतनाय॒तः। कृ॒न्त मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ कृ॒न्त मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒न्त। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। कृ॒न्त। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। कृ॒न्त। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दा॑न्। कृ॒न्त। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२८.८॥
स्वर रहित मन्त्र
कृन्त दर्भ सपत्नान्मे कृन्त मे पृतनायतः। कृन्त मे सर्वान्दुर्हार्दो कृन्त मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठकृन्त। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। कृन्त। मे। पृतनाऽयतः। कृन्त। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दान्। कृन्त। मे। द्विषतः। मणे ॥२८.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 8
विषय - शत्रुनाशक सेनापति दर्भ मणि का वर्णन।
भावार्थ -
हे (दर्भ) शत्रुनाशक सेनापते ! (मे सपत्नान्) मेरे शत्रुओं को और (मे पृतनायतः) मेरे ऊपर सेना से चढ़ाई करने वालों को (वृश्च) फरसा जिस प्रकार लकड़ी को काटता है उस प्रकार काट डाल (कृन्त) कैंची जिस प्रकार कपड़े को काट डालती है उस प्रकार काट डाल। (पिंश) चक्की जिस प्रकार दानों को पीस डालती है उस प्रकार पीस डाल। (विध्य) बाण जिस प्रकार लक्ष्य को वेधता है उस प्रकार वेंध डाल। इसी प्रकार (सर्वान् द्विषतः दुर्हार्द्रः) समस्त द्वेष करने वाले, दुष्ट हृदयों से युक्त, कुटिल पुरुषों को भी (वृश्च, कृन्त, पिंश, विध्य) फरसे क समान काट, कैची के समान कतर, चक्की के समान पीस, बाण के समान वेध अथवा फरसों से काट, कैंचियों से कतर, चक्कियों से पिसवा, बाणों से वेध।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षय कामो ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भमणिर्देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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