अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
भि॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑नां॒ हृद॑यं द्विष॒तां म॑णे। उ॒द्यन्त्वच॑मिव॒ भूम्याः॒ शिर॑ ए॒षां वि पा॑तय ॥
स्वर सहित पद पाठभि॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑नाम्। हृद॑यम्। द्वि॒ष॒ताम्। म॒णे॒। उ॒त्ऽयन्। त्वच॑म्ऽइव। भूम्याः॑। शिरः॑। ए॒षाम्। वि। पा॒त॒य॒ ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्द्धि दर्भ सपत्नानां हृदयं द्विषतां मणे। उद्यन्त्वचमिव भूम्याः शिर एषां वि पातय ॥
स्वर रहित पद पाठभिन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नानाम्। हृदयम्। द्विषताम्। मणे। उत्ऽयन्। त्वचम्ऽइव। भूम्याः। शिरः। एषाम्। वि। पातय ॥२८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
विषय - शत्रुनाशक सेनापति दर्भ मणि का वर्णन।
भावार्थ -
हे (दर्भ) शत्रुहिंसक दर्भ ! सेनापते ! हे (मणे) मननशील शिरोमणे ! सेनापते ! तू (सपत्नानां) हमारे राष्ट्र पर अपना अधिकार करने वाले और (द्विषताम्) द्वेष करने वाले पुरुषों के (हृदयं भिन्धि) हृदय को तोड़ दे। और (उद्यन्) ऊपर उठता हुआ सूर्य जिस प्रकार (भूम्या) पृथिवी के (त्वचम् इव) घेरने वाले मेघ को नीचे बरसा देता है उसी प्रकार तु (उद्यन्) ऊपर उठता हुआ (एषाम् शिरः) इन शत्रुओं के शिर को (वि पातय) नाना प्रकार से नीचे गिरा दे।
हे सेनापते ! तू (उद्यन् एषां शिरः भूम्याः त्वचम् इव निपातय) उदित होता हुआ इन शत्रुओं के शिर को भूमि की त्वचा या धूल या तृण के समान विविध दिशाओं में गिरा गिरा कर बिछादे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षय कामो ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भमणिर्देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
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