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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    उष्ट्रा॒ यस्य॑ प्रवा॒हणो॑ व॒धूम॑न्तो द्वि॒र्दश॑। व॒र्ष्मा रथ॑स्य॒ नि जि॑हीडते दि॒व ई॒षमा॑णा उप॒स्पृशः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उष्ट्रा॒: । यस्य॑ । प्रवा॒हण॑: । व॒धूम॑न्त: । द्वि॒र्दश॑ ॥ व॒र्ष्मा । रथ॑स्य॒ । नि । जि॑हीडते । दि॒व: । ई॒षमा॑णा: । उप॒स्पृश॑: ॥१२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो वधूमन्तो द्विर्दश। वर्ष्मा रथस्य नि जिहीडते दिव ईषमाणा उपस्पृशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उष्ट्रा: । यस्य । प्रवाहण: । वधूमन्त: । द्विर्दश ॥ वर्ष्मा । रथस्य । नि । जिहीडते । दिव: । ईषमाणा: । उपस्पृश: ॥१२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (यस्य) जिसके (प्रवाहिणः) उत्तम स्थान को प्राप्त कराने वाले (वधूमन्तः) वधू अर्थात् हिंसाशील शत्रु नाशक शक्तियों वाले (द्विः दश) बीस (उष्ट्राः) ऊंट हैं। और (यस्य) जिसके (रथस्य) रथ की (वर्ष्माः) चोटियां (दिवः) आकाश को (उपस्पृशः) छूती हुई (ईषमाणाः) चलते हुए (दिवः) आकाश को (नि जिहीडते) नीचा दिखाती हैं। अथवा—(यस्य) जिस राजा के (द्विः र्दश) बीस, (वधूमन्तः) हिंसा करने वाली शत्रु नाशक शक्तियों से युक्त (उष्ट्राः) शत्रु को दग्ध करने वाले (प्रवाहणः) आगे बढ़ने वाले या उत्तम अश्व आदि सवारियों पर चढ़ कर चलने वाले हों। और (रथस्य) रथ की (वर्मा) ऊंची ध्वजाएं। (ईषमाणः) चलती चलती (उपस्पृशः) गगन को छूने वाली (दिवः नि जिहीडते) आकाश या सूर्य को भी तिरस्कार करती हैं। इस सूक्त के अध्यात्मिक अर्थ भी निकलते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - तिम्रो नाराशंस्यः। अतः परं त्रिशद् ऋच इन्द्रगाथाः।

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