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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 3
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    ए॒ष इ॒षाय॑ मामहे श॒तं नि॒ष्कान्दश॒ स्रजः॑। त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ष:। इ॒षाय॑ । मामहे । श॒तम् । नि॒ष्कान् । दश॒ । स्रज॑: ॥ त्रीणि॑ । श॒तानि॑ । अर्व॑तान् । स॒हस्रा॒ । दश॒ । गोना॑म् ॥१२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष इषाय मामहे शतं निष्कान्दश स्रजः। त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एष:। इषाय । मामहे । शतम् । निष्कान् । दश । स्रज: ॥ त्रीणि । शतानि । अर्वतान् । सहस्रा । दश । गोनाम् ॥१२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (एषः) वह प्रसिद्ध पुरुष (शतं निष्कान्) सौ स्वर्णमुद्राएं (दश स्रजः) दस मालाएं और (अर्वतां) घोड़ों के (त्रीणि शतानि) तीन सौ (गोनाम्) गाँवों के (दश सहस्रा) दस हजार अर्थात् ३०० घोड़े और दस सहस्र गौवें (इषाय) इच्छा करने वाले, जन को (मामहे) प्रदान करता है। वही व्यक्ति ‘नराशंस’ अर्थात् सर्व साधारण प्रजाजनों से स्तुति करने योग्य होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - तिम्रो नाराशंस्यः। अतः परं त्रिशद् ऋच इन्द्रगाथाः।

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