अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 14
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
उप॑ नो न रमसि॒ सूक्ते॑न॒ वच॑सा व॒यं भ॒द्रेण॒ वच॑सा व॒यम्। वना॑दधिध्व॒नो गि॒रो न रि॑ष्येम क॒दा च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । न॒: । रमसि॒ । सूक्ते॑न॒ । वच॑सा । व॒यम् । भ॒द्रेण॒ । वच॑सा । व॒यम् ॥ वना॑त् । अधिध्व॒न: । गि॒र: । न । रि॑ष्येम । क॒दा । च॒न ॥१२७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
उप नो न रमसि सूक्तेन वचसा वयं भद्रेण वचसा वयम्। वनादधिध्वनो गिरो न रिष्येम कदा चन ॥
स्वर रहित पद पाठउप । न: । रमसि । सूक्तेन । वचसा । वयम् । भद्रेण । वचसा । वयम् ॥ वनात् । अधिध्वन: । गिर: । न । रिष्येम । कदा । चन ॥१२७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 14
विषय - राजा को विद्वान् का आदेश और समृद्ध प्रजाएं।
भावार्थ -
(वयम्) हम सब (सूक्तेन वचसा) उत्तम रीति से कहे गये, उत्तम ज्ञान युक्त वेद के सूक्त रूप वचन से (नरम्) उस सबके नेता, नरश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम, सबके प्रवर्तक, राजा और परमेश्वर की (उप नोनुमसि) उपासना पूर्वक प्रेम से स्तुति करें। वह (नः) हमारी (अधिध्वनः) उच्च ध्वनि वाली (गिरः) वाणियों को (वनात्) सेवन करे। हम (कदाचन्) कभी (न रिष्येम) पीड़ित और दुखी न हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथ चतस्यः कारव्याः। अनुष्टुभः॥
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