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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 14
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    203

    उप॑ नो न रमसि॒ सूक्ते॑न॒ वच॑सा व॒यं भ॒द्रेण॒ वच॑सा व॒यम्। वना॑दधिध्व॒नो गि॒रो न रि॑ष्येम क॒दा च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । न॒: । रमसि॒ । सूक्ते॑न॒ । वच॑सा । व॒यम् । भ॒द्रेण॒ । वच॑सा । व॒यम् ॥ वना॑त् । अधिध्व॒न: । गि॒र: । न । रि॑ष्येम । क॒दा । च॒न ॥१२७.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप नो न रमसि सूक्तेन वचसा वयं भद्रेण वचसा वयम्। वनादधिध्वनो गिरो न रिष्येम कदा चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । न: । रमसि । सूक्तेन । वचसा । वयम् । भद्रेण । वचसा । वयम् ॥ वनात् । अधिध्वन: । गिर: । न । रिष्येम । कदा । चन ॥१२७.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (नः) हमको (न) अब (उप) आदर से (रमसि) तू आनन्द देता है, (सूक्तेन) वेदोक्त (वचसा) वचन के साथ (वयम्) हम, (भद्रेण) कल्याणकारी (वचसा) वचन के साथ (वयम्) हम (वनात्) क्लेश से अलग होकर (अधिध्वनः) ऊँची ध्वनिवाली (गिरः) वाणियों को (कदा चन) कभी भी (न)(रिष्येम) नष्ट करें ॥१४॥

    भावार्थ

    राजा और प्रजा परस्पर उपकार करके दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ संसार में सुख बढ़ावें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(उप) पूजायाम् (नः) अस्मान् (न) सम्प्रति (रमसि) रमयसि। आनन्दयसि (सूक्तेन) वेदविहितेन (वचसा) वचनेन (वयम्) प्रजाजनाः (भद्रेण) कल्याणकरेण (वचसा) (वयम्) (वनात्) वन उपतापे-अच्। क्लेशात् पृथग्भूय (अधिध्वनः) ध्वन शब्दे-क्विप्। उच्चध्वनिः युक्ताः (गिरः) वाणीः (न) निषेधे (रिष्येम) नाशयेम (कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि ॥

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    विषय

    'भद्रेण सूक्तेन' वचसा

    पदार्थ

    १. (वयम्) = हम (सूक्तेन वचसा) = उत्तमता से उक्त वचनों के द्वारा (नरम्) = उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले प्रभु को (उप नो नमसि) = खूब ही उपस्तुत करते हैं। (वयम्) = हम भद्रेण वचसा कल्याणकारक सुखप्रद वचनों के द्वारा प्रभु का स्तवन करते हैं। सूक्त व भद्र वचनों के द्वारा ही प्रभु का स्तवन होता है। २. वे प्रभु हमारी (अधिध्वन:) = अधिक ध्वनिवाली-ऊँचे से उच्चरित (गिरः) = वाणियों का (वनात्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करें। हमारे स्तुतिवचन हमें प्रभु का प्रिय बनाएँ। इन स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हुए हम (कदाचन) = कभी भी (न रिष्येम) = हिंसित न हों।

    भावार्थ

    हम 'भद्र व सूक्त' वचनों के द्वारा प्रभु का स्तवन करें। ये स्तुति-वचन प्रभु के लिए प्रिय हों। इन स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हुए हम कभी हिंसित न हों।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (नः) हमसे आप (न उप रमसि) उपरत नहीं होते, अर्थात् हमारी आप उपेक्षा नहीं करते, आपकी कृपा से (वयम्) हम (सूक्तेन) सत्य और प्रिय (वचसा) वचनोंवाले हों। (वयम्) हम (भद्रेण वचसा) भद्रवाणीवाले हों। (अधिध्वनः) श्रेष्ठमार्ग में डालनेवाली (गिरः) वेदवाणियाँ (वनात्) हमें प्राप्त रहें ताकि हम (कदा चन) कभी भी (न रिष्येम) दुःखों के भोगी न बनें।

    टिप्पणी

    [टिप्पणी—इस सूक्त में “परिक्षितः” पद द्वारा ऐतिहासिक-व्यक्ति, महाभारत कालीन परीक्षित राजा का वर्णन मानते हैं। यह उनकी भूल है। मन्त्र में “परिक्षित्” पद है, नकि परीक्षित, साथ ही “कौरव्यः” पद द्वारा, ऐतिहासिक व्यक्ति, “कुरु के वंशज कौरव” का वर्णन मानते हैं, जो कि प्रकरण की दृष्टि से असङ्गत है। निघण्टु में “कुरवः” पद है, जोकि “कुरु” पद का बहुवचन है। “कुरवः” का अर्थ है “ऋत्विजः” (निघं০ ३.१८)। उणादि कोष १.२४ में “कुरु” की व्युत्पत्ति की है—“यः करोति येन वा सः कुरुः”। “परिक्षित् और कौरव्य” के सम्बन्ध में यह भी देखना चाहिए कि सूक्त १२७ के मन्त्रों में जो वर्णन हुआ है, क्या ऐसा वर्णन महाभारत में, परीक्षित राजा के राज्य के सम्बन्ध में हुआ भी है, या नहीं? फिर भी यह तो सभी मानते हैं कि १२७ वां सूक्त अथर्ववेद में प्रक्षिप्त है, क्योंकि यह कुन्ताप-सूक्तों का सूक्त है। इसलिए “परिक्षित् और कौरव्य” यदि महाभारत के समकाल के हैं, तो भी वेदों पर कोई ऐतिहासिक आक्षेप नहीं होता। अधिध्वनः=अधि अध्वनः। अथवा वैदिकध्वनियों के अधिष्ठाता परमेश्वर की वेदवाणियाँ हमें प्राप्त रहें।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra

    Meaning

    O lord of the universe, we thank you that you never neglect us. Bless us that we may praise you with noble hymns and words of praise. Let noble words free from pain and sufferance ever resound and come to us. Let us never suffer any harm, guilt or negativity.

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    Translation

    O King, now you give us delight with respect. We with hymns, with praising songs, and with auspicious prayers, free from troubles do not ever stop these rising voices of praise.

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    Translation

    O King, now you give us: delight with respect. We with hymns, with praising songs, and with auspicious. prayers, free from troubles do not ever stop these rising voices of praise.

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    Translation

    The person, who stiles his sister, who intends to kill his friend and who is disrespectful towards his elder, is declared to be an outcaste (through down by society).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(उप) पूजायाम् (नः) अस्मान् (न) सम्प्रति (रमसि) रमयसि। आनन्दयसि (सूक्तेन) वेदविहितेन (वचसा) वचनेन (वयम्) प्रजाजनाः (भद्रेण) कल्याणकरेण (वचसा) (वयम्) (वनात्) वन उपतापे-अच्। क्लेशात् पृथग्भूय (अधिध्वनः) ध्वन शब्दे-क्विप्। उच्चध्वनिः युक्ताः (गिरः) वाणीः (न) निषेधे (रिष्येम) नाशयेम (कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि ॥

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