अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 4
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
262
वच्य॑स्व॒ रेभ॑ वच्यस्व वृ॒क्षे न॑ प॒क्वे श॒कुनः॑। नष्टे॑ जि॒ह्वा च॑र्चरीति क्षु॒रो न भु॒रिजो॑रिव ॥
स्वर सहित पद पाठवच्य॑स्व॒ । रेभ॑ । वच्य॑स्व॒ । वृ॒क्षे । न । प॒क्वे । श॒कुन॑: ॥ नष्टे॑ । जि॒ह्वा । च॑र्चरीति । क्षु॒र: । न । भु॒रिजो॑: । इव ॥१२७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वच्यस्व रेभ वच्यस्व वृक्षे न पक्वे शकुनः। नष्टे जिह्वा चर्चरीति क्षुरो न भुरिजोरिव ॥
स्वर रहित पद पाठवच्यस्व । रेभ । वच्यस्व । वृक्षे । न । पक्वे । शकुन: ॥ नष्टे । जिह्वा । चर्चरीति । क्षुर: । न । भुरिजो: । इव ॥१२७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(रेभ) हे विद्वान् ! (वच्यस्व) उपदेश कर, (वच्यस्व) उपदेश कर, (न) जैसे (शकुनः) पक्षी (पक्वे) फलवाले (वृक्षे) वृक्ष पर [चह-चहाता है]। (नष्टे) दुःख व्यापने पर (भुरिजोः) दोनों धारण-पोषण करनेवाले [स्त्री-पुरुष] की (इव) ही (जिह्वा) जीभ (चर्चरीति) चलती रहती है, (न) जैसे (क्षुरः) छुरा [केशों पर चलता है] ॥४॥
भावार्थ
विद्वान् स्त्री पुरुष प्रसन्न होकर सन्तान आदि को सदा सदुपदेश करें, जैसे फलवाले वृक्ष पर पक्षी प्रसन्न होकर बोलते हैं, और सदुपदेश द्वारा क्लेशों को इस प्रकार काटे, जैसे नापित केशों को छुरा से काट डालता है ॥४॥
टिप्पणी
४−(वच्यस्व) ब्रवीतेर्यक्। ब्रूहि। उपदिश (रेभ) स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। हे विद्वन् (वच्यस्व) (वृक्षे) (न) यथा (पक्वे) फलयुक्ते (शकुनः) अथ० ६।२७।२। शक्लृ शक्तौ-उन। शक्तः। पक्षी (नष्टे) नशत्, व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१८। व्याप्ते दुःखे (जिह्वा) वाणी (चर्चरीति) भृशं चरति (क्षुरः) क्षुर विलेखने-क। नापितास्त्रम् (न) यथा (भुरिजोः) भृञ उच्च। उ० २।७२। डुभृञ् धारणपोषणयोः-इजि कित्, उकारान्तादेशः। धारकपोषकयोः स्त्रीपुरुषयोः (इव) एव ॥
विषय
मामनुस्मर युध्य च
पदार्थ
१. हे (रेभ) = स्तोतः । (वच्यस्व) = तू प्रभु के नामों का उच्चारण कर । प्रभु के गुणों का वच्यस्व तू इसप्रकार उच्चारण कर (न) = जैसेकि (पक्वे वृक्षे) = पके हुए वृक्ष पर (शकुन:) = पक्षी शब्द करता है। वृक्ष के परिपक्व फलों का वह आनन्द लेता है और प्रसन्नता में शब्द करता है। इसी प्रकार हे स्तोतः। प्रभु-स्मरण में आनन्द अनुभव करता हुआ तू प्रभु का गुणगान कर। २. (नष्टे) = किसी भी प्रकार के 'सन्तान, धन व यश' आदि का नाश होने पर (जिह्वा चर्चरीति) = इस स्तोता की जिला प्रभु-नामों का उच्चारण करती हुई इसप्रकार गतिवाली होती है, (न) = जैसेकि (भुरिजो क्षरः इव) = भुजाओं में क्षुर [razor or arrow] [उस्तरा या तीर] गतिवाला होता है। यह उपासक विन-विनाश के लिए भुजाओं द्वारा अस्त्रों का प्रहार करता है और वाणी द्वारा प्रभु-नामोच्चारण करता है, अर्थात् यह स्तोता प्रभु-स्मरण करता है और युद्ध करता है। [मामनुस्मर युध्य च]।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन में आनन्द लें। आपत्ति आने पर भुजाओं में पुरुषार्थ हो, वाणी __में प्रभु के नामों का उच्चारण।
भाषार्थ
(रेभ) हे स्तुति करनेवाले! (वच्यस्व) तू परमेश्वर के स्तुतिगान गा, (वच्यस्व) बार-बार गा; (न) जैसे कि (शकुनः) पक्षी (पक्वे वृक्षे) पके-फलोंवाले वृक्ष पर बैठकर, फलों को खाता हुआ अपनी अव्यक्त चहचहाती बोली द्वारा मानो परमेश्वर के गीत गाता है। (नष्टे) विनाशकाल के उपस्थित हो जाने पर तो (जिह्वा) जबान (चर्चरीति) लड़खड़ा जाती है, (न) जैसे कि (भुरिजोः) भूरिवेगवाले अश्व के (क्षुरः) पैर (इव) मानो लड़खड़ा जाते हैं।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह है कि जब तक मृत्युकाल उपस्थित नहीं होता, तब तक जिह्वा से तू परमेश्वर के स्तुतिगान गा ले, विनाश-काल के उपस्थित हो जाने पर चाहते हुए भी जिह्वा स्तुतिगान में असमर्थ होती है। भुरिजोः=भुरि+जु गतौ, षष्ठ्येकवचन। क्षुरः=खुर, अश्व के पैर। रेभ=स्तोता (निघं০ ३.१६)।]
विषय
विद्वान् पुरुष का कर्तव्य।
भावार्थ
हे (रेभ) स्तुतिशील ! विद्वन् ! (वच्यस्व वच्यस्व) अच्छी प्रकार वचन बोल, उत्तम प्रवचन कर। (पक्वे) पके फलवाले (वृक्षे) वृक्ष पर (शकुनः न) जिस प्रकार पक्षी प्रसन्न होकर मनोहर ध्वनि करता हैं उसी प्रकार (वृक्षे पक्वे) काटने योग्य इस देह के पकजाने पर या परिपक्वं ज्ञान होजाने पर तू (वच्यस्व वच्यस्व) ईश्वर की स्तुति कर, अपने से न्यून अपरिपक्व ज्ञानवालों को प्रवचन द्वारा प्रसन्नता से उपदेश कर। और (जिह्वा) जीभ (क्षुरः) छुरे के समान और (ओष्ठे) होंठ (भुरिजोः इव) कैंची के फलकों के समान (चर्चरीति) चलें।
टिप्पणी
‘वच्यः स्व' इति क्वचित्। (द्वि०) ‘वृक्षेण’ इति क्वचित्। ‘नष्ट’ इति शं० पा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तिस्रोः रैभ्य ऋचः।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra
Meaning
When the time is ripe, O celebrant, speak, sing and celebrate the Lord as the bird chirps on the tree when the fruit is ripe, for, when the time is gone and the fruit is no more, the tongue would flutter in the mouth for nothing, with regret may be, like the blade of scissors for no purpose.
Translation
O Ribha (the learned man) you prech and preeech like a bird on the tree of ripe fruits and let the organ of speech move like razor and the lips like Scissors blades.
Translation
O Ribha (the learned man) you prech and preeech like a bird on the tree of ripe fruits and let the organ of speech move like razor and the lips like Scissors blades.
Translation
O broadcasting engineer, set up such an intelligent mechanism whichmay be capable of giving shelter as well as expression to the speech-waves (i.e., in the form of transmission and receiving sets). Let you make this voice pervade through other divine forces like ether, air, light, water and theearth, just as an archer hurls off his arrow. (That is the broadcaster hurls the voice into the space like an arrow).
Footnote
Shows the manner in which voice-waves are hurled into space by the transmission apparatus.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(वच्यस्व) ब्रवीतेर्यक्। ब्रूहि। उपदिश (रेभ) स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। हे विद्वन् (वच्यस्व) (वृक्षे) (न) यथा (पक्वे) फलयुक्ते (शकुनः) अथ० ६।२७।२। शक्लृ शक्तौ-उन। शक्तः। पक्षी (नष्टे) नशत्, व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१८। व्याप्ते दुःखे (जिह्वा) वाणी (चर्चरीति) भृशं चरति (क्षुरः) क्षुर विलेखने-क। नापितास्त्रम् (न) यथा (भुरिजोः) भृञ उच्च। उ० २।७२। डुभृञ् धारणपोषणयोः-इजि कित्, उकारान्तादेशः। धारकपोषकयोः स्त्रीपुरुषयोः (इव) एव ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(রেভ) হে বিদ্বান! (বচ্যস্ব) উপদেশ করো, (বচ্যস্ব) উপদেশ করো, (ন) যেমন (শকুনঃ) পক্ষী (পক্বে) ফলযুক্ত (বৃক্ষে) বৃক্ষে [কিচিরমিচির/উল্লাস করে]। (নষ্টে) দুঃখ বিস্তার হলে (ভুরিজোঃ) উভয়েরই ধারণ-পোষণকারী [স্ত্রী-পুরুষের] (ইব) ই (জিহ্বা) জিহ্বা (চর্চরীতি) চলতে থাকে, (ন) যেমন (ক্ষুরঃ) ক্ষুর [চুলের ওপর চলে] ॥৪॥
भावार्थ
বিদ্বান স্ত্রী পুরুষ প্রসন্ন হয়ে সন্তান আদিকে সদা সদুপদেশ করুক, যেমন ফলযুক্ত বৃক্ষে পক্ষী প্রসন্ন হয়ে কিচিরমিচির/গান করে, এবং সদুপদেশ দ্বারা ক্লেশ/দুঃখ এমন ভাবে দূর করুক, যেমন নাপিত ক্ষুর দিয়ে চুল কাটে॥৪॥
भाषार्थ
(রেভ) হে স্তোতা! (বচ্যস্ব) তুমি পরমেশ্বরের স্তুতিগান করো, (বচ্যস্ব) বার-বার গাআন করো; (ন) যেমন (শকুনঃ) পক্ষী (পক্বে বৃক্ষে) পক্ব-ফলযুক্ত বৃক্ষের ওপর বসে, ফল খেয়ে নিজের অব্যক্ত বচন দ্বারা মানো পরমেশ্বরের গীত গান করে। (নষ্টে) বিনাশকাল উপস্থিত হলে তো (জিহ্বা) জিহ্বা (চর্চরীতি) বিশৃঙ্খল/স্পন্দিত/অস্থির হয়, (ন) যেমন (ভুরিজোঃ) ভূরিবেগসম্পন্ন/প্রচন্ডবেগবান অশ্বের (ক্ষুরঃ) পা (ইব) মানো অস্থির হয়ে যায়।
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