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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 11
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    107

    इन्द्रः॑ का॒रुम॑बूबुध॒दुत्ति॑ष्ठ॒ वि च॑रा॒ जन॑म्। ममेदु॒ग्रस्य॒ चर्कृ॑धि॒ सर्व॒ इत्ते॑ पृणाद॒रिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । का॒रुम् । अ॑बूबुध॒त् । उत्ति॑ष्ठ । वि । चर॒ । जन॑म् ॥ मम । इत् । उ॒ग्रस्य॑ । चर्कृ॑धि॒ । सर्व॒: । इत् । ते॑ । पृ॒णात् । अ॒रि: ॥१२७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः कारुमबूबुधदुत्तिष्ठ वि चरा जनम्। ममेदुग्रस्य चर्कृधि सर्व इत्ते पृणादरिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । कारुम् । अबूबुधत् । उत्तिष्ठ । वि । चर । जनम् ॥ मम । इत् । उग्रस्य । चर्कृधि । सर्व: । इत् । ते । पृणात् । अरि: ॥१२७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] ने (कारुम्) काम करनेवाले को (अबूबुधत्) जगाया है−(उत्तिष्ठ) उठ और (जनम्) लोगों में (वि चर) विचर, (मम इत् उग्रस्य) मुझ ही तेजस्वी की [भक्ति] (चर्कृधि) तू करता रहे, (सर्वः) प्रत्येक (अरिः) वैरी (इत्) भी (ते) तेरी (पृणात्) तृप्ति करे ॥११॥

    भावार्थ

    प्रतापी राजा के प्रबन्ध से मनुष्य उद्यमी होकर आपस में विचारें और राजभक्त होकर चोर आदि प्रजा के शत्रुओं को वश में करें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (कारुम्) कार्यकर्तारम् (अबूबुधत्) प्रबोधितवान् (उत्तिष्ठ) (वि) विविधम् (चर) गच्छ (जनम्) मनुष्यसमूहम् (मम) (इत्) एव (उग्रस्य) तेजस्विनः (चर्कृधि) करोतेः-यङ्लुकि रूपम्। भृशं भक्तिं कुरु (सर्वः) प्रत्येकः (इत्) (ते) तव (पृणात्) पृण प्रीणने। तृप्तिं कुर्यात् (अरिः) शत्रुः ॥

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    विषय

    बोध

    पदार्थ

    १. (इन्द्र:) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला प्रभु (कारूम्) = क्रियाओं को कुशलता से करनेवाले पुरुष को (अबूबुधत्) = बोधयुक्त करता है। आलसी को ज्ञान प्राप्त नहीं होता। प्रभु इस कार को यह बोध देते हैं कि (उत्तिष्ठ) = उठ, आलस्य को छोड़ और (जनम् विचर) = लोगों में विचरण कर। लोगों से तू सम्पर्क स्थापित कर। उनके सुख-दुःख में सहानुभूति दर्शाता हुआ उनका सहायक बन। २. दूसरी बात यह है कि (उग्रस्य मम इत्) = शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले तेजस्वी मेरी ही (चर्कृधि) = स्तुति करनेवाला बन। तू इसप्रकार अपने जीवन को सुन्दर बना कि (सर्व:) = सब (अरि:) = [a religious or pious man] धार्मिक लोग (इत्) = निश्चय से (ते पुणात्) = तुझसे प्रसन्न हों [पृणाति delight, please]। तेरे सुन्दर जीवन को देखकर उन्हें प्रसन्नता का अनुभव हो।

    भावार्थ

    क्रियाशील व्यक्ति को प्रभु बोध देते हैं-[१]त् लोगों के साथ मिलकर चल [२] प्रभु का स्तवन करनेवाला बन और [३] इसप्रकार जीवन को सुन्दर बना कि सब धार्मिक लोग तुझे देखकर प्रसन्न हों।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर (कारुम्) अपने स्तोता को (अबूबुधत्) आध्यात्मिक प्रबोध देता है, और उसे कहता है कि (उत्तिष्ठ) उठ अर्थात् प्रयत्नशील बन, और (जनम्) प्रजाजनों में (वि चरा) विचर, और (मम उग्रस्य) कर्मव्यवस्था के नियमन में उग्ररूप जो मैं हूँ, उसके, (चर्कृधि) कार्य को करता रह। (सर्वः इत्) सभी प्रजाजन (ते) तुझे (पृणात्) पालेंगे, (अरिः) दुश्मन भी तुझे पालेगा। अथवा (अरिः) तू सबका आध्यात्मिक-अधीश्वर बन।

    टिप्पणी

    [अरिः=ईश्वरः (निरु০ ५.२.७)। कारुः=स्तोता (निघं০ ३.१६)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra

    Meaning

    Indra, universal ruler, wakes up the poet and artist and inspires him: Rise, go among the people and proclaim my message of love, passion and action, and the entire citizenry would listen, honour and reward you to your satisfaction.

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    Translation

    The mighty ruler wakes the man of industry and vigour and says, stand up, walk in people, and do labour for me. Let all the enemies also satisfy you.

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    Translation

    The mighty ruler wakes the man of industry and vigor and says, stand up, walk in people, and do labor for me. Let all the enemies also satisfy you.

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    Translation

    O Mighty king, let not these cows be injured, let their master be not hurt. Let no inimical hearted person rule over them. O king of protection and defence, let no robber be their master.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (कारुम्) कार्यकर्तारम् (अबूबुधत्) प्रबोधितवान् (उत्तिष्ठ) (वि) विविधम् (चर) गच्छ (जनम्) मनुष्यसमूहम् (मम) (इत्) एव (उग्रस्य) तेजस्विनः (चर्कृधि) करोतेः-यङ्लुकि रूपम्। भृशं भक्तिं कुरु (सर्वः) प्रत्येकः (इत्) (ते) तव (पृणात्) पृण प्रीणने। तृप्तिं कुर्यात् (अरिः) शत्रुः ॥

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