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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 6
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - भुरिगुष्णिक् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    178

    प्र रे॑भ॒ धीं भ॑रस्व गो॒विदं॑ वसु॒विद॑म्। दे॑व॒त्रेमां॒ वाचं॑ श्रीणी॒हीषु॒र्नावी॑र॒स्तार॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । रे॑भ॒ । भ॑रस्व । गो॒विद॑म् । वसु॒विद॑म् ॥ दे॒व॒ऽत्रा । इमाम् । वाच॑म् । त्रीणी॒हि । इषु॒: । न । अर्वी॑: । अ॒स्तार॑म् ॥१२७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र रेभ धीं भरस्व गोविदं वसुविदम्। देवत्रेमां वाचं श्रीणीहीषुर्नावीरस्तारम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । रेभ । भरस्व । गोविदम् । वसुविदम् ॥ देवऽत्रा । इमाम् । वाचम् । त्रीणीहि । इषु: । न । अर्वी: । अस्तारम् ॥१२७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (रेभ) हे विद्वान् ! (गोविदम्) भूमि प्राप्त करानेवाली और (वसुविदम्) धन प्राप्त करानेवाली (धीम्) बुद्धि को (प्र) अच्छे प्रकार से (भरस्व) धारण कर। (देवत्रा) विद्वानों के बीच (इमाम्) इस [पूर्वोक्त] (वाचम्) वाणी को (श्रीणीहि) पक्की कर, (इषुः न) जैसे तीर (अवीः) प्रवेशयोग्य लक्ष्यों को (अस्तारम्) तीर चलानेवाले के लिये [पक्का करता है] ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों में बैठकर निश्चय करे कि राज्य और धन की प्राप्ति के लिये यत्न सुफल होवे, जैसे चतुर धनुर्धारी का बाण लक्ष्य पर ही पहुँचता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(प्र) प्रकर्षेण (रेभ) विद्वन् (धीम्) प्रज्ञाम् (भरस्व) धरस्व (गोविदम्) भूमिप्रापिकाम् (वसुविदम्) धनप्रापिकाम् (देवत्रा) विद्वत्सु (इमाम्) पूर्वोक्ताम् (वाचम्) वाणीम् (श्रीणीहि) परिपक्वां दृढां कुरु (इषुः) इषः (न) यथा (अवीः) अव प्रवेशे-इन्। प्रवेशाणि लक्ष्याणि (अस्तारम्) शरप्रक्षेप्तारम् ॥

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    विषय

    ज्ञान के द्वारा प्रभु को प्राप्त करानेवाली बुद्धि

    पदार्थ

    १. हे (रेभ) = स्तोतः! (गोविदम्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाली तथा (वसुविदम्) = सबके अन्दर बसनेवाले व सबको अपने अन्दर बसानेवाले प्रभु को प्राप्त करानेवाली (धीम्) = बुद्धि को (प्रभरस्व) = अपने में धारण कर। स्तवन से ही यह बुद्धि प्राप्त होती है। २. (देवत्रा) = देवों में स्थित होकर (इमां वाचम्) = इस ज्ञान की वाणी को (श्रीणीहि) = अपने में परिपक्व कर । ज्ञानी गुरुओं के चरणों में बैठकर इस ज्ञान को तू इसप्रकार परिपक्व कर (न) = जैसेकि (अवी:इषु:) = रक्षक बाण (अस्तारम्) = अस्त्रों को फेंकनेवाले योद्धा को परिपक्व करता है। हाथ में अस्त्र होने पर योद्धा घबराता नहीं। अस्त्रों से सुसज्जित योद्धा दृढ मन से युद्ध करता है, इसी प्रकार उत्तम आचार्यों को पाकर शिष्य अपने में ज्ञान का ठीकरूप से परिपाक कर पाता है।

    भावार्थ

    स्तवन से वह बुद्धि प्राप्त होती है जोकि ज्ञान को प्राप्त कराती हुई प्रभु-प्राप्ति का साधन बनती है। यह स्तोता ज्ञानी आचार्यों के चरणों में ज्ञान का परिपाक करता है और इसप्रकार जीवन-संग्राम में विजयी बनता है जैसेकि अस्त्रों से सुसज्जित योद्धा युद्ध में।

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    भाषार्थ

    इसलिए (रेभ) हे स्तोतः! तू (धीम्) आस्तिक बुद्धि और तदनुरूप कर्मों का (प्र भरस्व) प्रकर्षरूप में संग्रह कर ले, जो कि तुझे (गोविदम्) ऐन्द्रियिक-शक्तियाँ प्रदान करें, तथा (वसुविदम्) आध्यात्मिक-सम्पत्तियाँ प्रदान करें। तथा (देवत्रा) देवकोटि के महात्माओं में रहता हुआ तू, (इमां वाचम्) परमेश्वरीय-स्तुति-सम्बन्धी इस अपनी स्तुतिवाणी को (श्रीणीहि) परिपक्व कर ले, (इषुः) और वाण़ जैसे शत्रुओं का विनाश करता है, वैसे तू कामादि का विनाश करके, (वीरः ना) और धर्मवीर नेता बनकर, (तारम्) भावसागर से तैरानेवाले परमेश्वर को प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    [धी=प्रज्ञा तथा कर्म (निघं০ ३.९; २.१)।]

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    विषय

    विद्वान् पुरुष का कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे (रेभ) स्तुतिशील विद्वन् ! तू (गोविदं) उत्तम ज्ञानमय परमेश्वर को प्राप्त कराने वाली और (वसुविदम्) समस्त ब्रह्माड और देह में बसने वाले परमात्मा और आत्मा को ज्ञान कराने वाली (धियम्) बुद्धि को (भरस्व) धारण कर। और (इषुं न) बाण को जिस प्रकार (अस्ता) फेंकने वाला धनुर्धर फेंकता है। (देवत्रा) उपास्य देव के निमित्त ही (इमां वाचं) इस वाणी को (कृधि) प्रदान कर, प्रेरित कर।

    टिप्पणी

    ‘देवत्रा वाचं श्रीणीहीषुर्नावीरस्तारम्’ यह पाठ शंकरपाण्डुरंग सम्मत है। उसका पद पाठ—देवत्राना। वाचं। श्रीणीहि। इषुः। न। अवीः। अस्तारम्॥ ‘वाचं श्रीणिहीपुर्नावीरस्तारम्’। इति शं० पा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिस्रोः रैभ्य ऋचः।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra

    Meaning

    O celebrant, bear and mature the intelligence which brings knowledge and wisdom, and the wealth, honour and excellence of the world. O man of faith in Divinity, sharpen and pefect the Word Divine and your voice as the perfect archer sharpens and calibrates his arrow for the bow to hit his target.

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    Translation

    O learned one, you attain the knowledge which provides with wealth and gives cattle and address this prayer to God as an archer aims his shaft.

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    Translation

    O learned one, you attain the knowledge which provides with wealth and gives cattle and address this prayer to God as an archer aims his shaft.

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    Translation

    The same king, settling all under his protection, thoroughly dispelling darkness of ignorance and evil, establishes our well-being and prosperity. The same king, dexterous in the management of state-affairs, forming a sort of family ties with his subjects, speaks lovingly with them like a husband, speaking to his wife.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(प्र) प्रकर्षेण (रेभ) विद्वन् (धीम्) प्रज्ञाम् (भरस्व) धरस्व (गोविदम्) भूमिप्रापिकाम् (वसुविदम्) धनप्रापिकाम् (देवत्रा) विद्वत्सु (इमाम्) पूर्वोक्ताम् (वाचम्) वाणीम् (श्रीणीहि) परिपक्वां दृढां कुरु (इषुः) इषः (न) यथा (अवीः) अव प्रवेशे-इन्। प्रवेशाणि लक्ष्याणि (अस्तारम्) शरप्रक्षेप्तारम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (রেভ) হে বিদ্বান! (গোবিদম্) ভূমি প্রদায়ী এবং (বসুবিদম্) ধন প্রদায়ী (ধীম্) বুদ্ধিকে (প্র) উত্তমরূপে (ভরস্ব) ধারণ করো। (দেবত্রা) বিদ্বানদের মধ্যে (ইমাম্) এই [পূর্বোক্ত] (বাচম্) বাণীকে (শ্রীণীহি) পরিপক্ক করো, (ইষুঃ ন) যেমন বাণ (অবীঃ) প্রবেশযোগ্য লক্ষ্যকে (অস্তারম্) তীর নিক্ষেপকারীর জন্য [পরিপক্ক করে] ॥৬॥

    भावार्थ

    পণ্ডিতদের মধ্যে বসে মনুষ্যের স্থির করা উচিত যে, রাজ্য ও ধন-সম্পদ লাভের প্রচেষ্টা যেন সফল হয়, যেমন চতুর ধনুর্ধারীর তীর কেবল লক্ষ্যেই পৌঁছায়॥৬॥

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    भाषार्थ

    এইজন্য (রেভ) হে স্তোতঃ! তুমি (ধীম্) আস্তিক বুদ্ধি এবং তদনুরূপ কর্ম-সমূহের (প্র ভরস্ব) প্রকর্ষরূপে সংগ্রহ করো, যা তোমাকে (গোবিদম্) ঐন্দ্রিয়িক-শক্তি প্রদান করে/করবে, তথা (বসুবিদম্) আধ্যাত্মিক-সম্পত্তি প্রদান করে/করবে। তথা (দেবত্রা) দেবকোটির মহাত্মাদের মধ্যে অবস্থান করে তুমি, (ইমাং বাচম্) পরমেশ্বরীয়-স্তুতি-সম্বন্ধী এই নিজের স্তুতিবাণী (শ্রীণীহি) পরিপক্ব করো, (ইষুঃ) এবং বাণ যেমন শত্রুদের বিনাশ করে, তেমনই তুমি কামাদির বিনাশ করে, (বীরঃ না) এবং ধর্মবীর নেতা হয়ে, (তারম্) ভাবসাগর থেকে ত্রাণকারী পরমেশ্বরকে প্রাপ্ত করো।

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