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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 63

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
    सूक्त - भुवनः साधनो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-६३

    प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नयं॒ छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्। अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्कम् । अ॒न॒य॒न् । शची॑भि: । आत् । इत् । स्व॒धाम् । इ॒षि॒राम् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न् ॥ अ॒या । वाज॑म् । दे॒वऽहि॑तम् । स॒ने॒म॒ । मदे॑म । श॒तऽहि॑मा: । सु॒ऽवीरा॑: ॥६३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यञ्चमर्कमनयं छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन्। अया वाजं देवहितं सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्यञ्चम् । अर्कम् । अनयन् । शचीभि: । आत् । इत् । स्वधाम् । इषिराम् । परि । अपश्यन् ॥ अया । वाजम् । देवऽहितम् । सनेम । मदेम । शतऽहिमा: । सुऽवीरा: ॥६३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    विद्वान् लोग (प्रत्यञ्चम्) शत्रुओं पर चढ़ाई करने में समर्थ (अर्कम्) स्तुति योग्य, एवं आदित्य के समान तेजस्वी पुरुष को (शचीभिः) शक्तिशाली सेनाओं के साथ (अनयन्) ले जाते हैं, उसको सेनाओं से युक्त करते हैं (आत इत्) और तदनन्तर (इषिराम्) बलवती सर्वप्रेरक (स्वधाम्) अपने राष्ट्र के ऐश्वर्य को धारण करने वाली शक्ति को (परि अपश्यन) साक्षात् करते हैं। (अया) इस बड़ी भारी राज्य की शक्ति से प्रेरित होकर हम लोग (देवहितम्) विजय चाहने वाले वीरों एवं राजा के हितकारी या अभिलाषा योग्य (वाजसे) संग्राम को या बल को (सनेम) प्राप्त करें और (सुवीराः) उत्तम वीरों और पुत्रों वाले होकर (शतं हिमाः) आयु के सौ वर्षों तक (मदेम) आनन्द प्रसन्न एवं तृप्त रहें। परमात्मा और आत्मा के पक्ष में—(अर्के) अर्चनीय उपास्य आत्मा को आत्मज्ञानी लोग (शचीभिः) यज्ञ और कर्म सहित साक्षात् करते हैं और उस सर्व प्रेरक, स्वयं शरीर और ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली शक्ति को ही (परि अपश्यन्) सर्वत्र विद्यमान पाते हैं, उस शक्ति से ही हम (देवहितम्) विद्वानों और प्राणों के हितकारी, उनके पोषक पालक (वाजं) अन्न का हम (सनेम) भोग करें और सौ वर्षों तक पुत्रादि सहित हर्षित रहें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ प्र० द्वि० भुवनः आप्रयः साधनो वा भौवनः। ३ तृ० च० भारद्वाजो वार्हस्पत्यः। ४–६ गोतमः। ७-९ पर्वतश्च ऋषिः। इन्दो देवता। ७ त्रिष्टुम् शिष्टा उष्णिहः। नवर्चं सूक्तम्॥

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