अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 9
येन॒ सिन्धुं॑ म॒हीर॒पो रथाँ॑ इव प्रचो॒दयः॑। पन्था॑मृ॒तस्य॒ यात॑वे॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । सिन्धु॑म् । म॒ही: । अ॒प: । रथा॑न्ऽइव । प्र॒ऽचो॒दय॑: ॥ पन्था॑म् । ऋ॒तस्य॑ । यात॑वे । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥६३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
येन सिन्धुं महीरपो रथाँ इव प्रचोदयः। पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । सिन्धुम् । मही: । अप: । रथान्ऽइव । प्रऽचोदय: ॥ पन्थाम् । ऋतस्य । यातवे । तम् । ईमहे ॥६३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 9
विषय - राजा और ईश्वर।
भावार्थ -
हे ईश्वर ! (येन) जिस बल से तू (सिन्धुम्) समुद्र के प्रति (महीः अपः) बहने वाली बड़ी बड़ी जल की नदियों को और (रथान् इव) रथों को महारथी के समान अपनी आज्ञा से (ऋतस्य) सत्य नियम के या चराचर संसार के (पन्थाम् यातवे) मार्ग पर ठीक प्रकार से चलने के लिये (प्रचोदयः) प्रोति करता है (तम् ईमहे) हम उसीको जानना चाहते हैं और याचना करते हैं।
सेनापति के पक्ष में—(सिन्धुं प्रति महीः अपः इव रथान् प्रचोदयः) समुद के प्रति जाने वाली महानदियों के समान रथों अर्थात् रथारूढ वीरों को (ऋतस्य पन्थाम् यातवे) संग्राम के मार्ग पर चलने की (प्रचोदयः) आज्ञा देता है (तम् ईमहे) हम उसका ज्ञान करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ प्र० द्वि० भुवनः आप्रयः साधनो वा भौवनः। ३ तृ० च० भारद्वाजो वार्हस्पत्यः। ४–६ गोतमः। ७-९ पर्वतश्च ऋषिः। इन्दो देवता। ७ त्रिष्टुम् शिष्टा उष्णिहः। नवर्चं सूक्तम्॥
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