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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 63

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 8
    सूक्त - पर्वतः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६३

    येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्वर्णरम्। येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वे॒पय॑न्तम् । स्व॑:ऽतरम् ॥ येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥६३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना दशग्वमध्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम्। येना समुद्रमाविथा तमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । दशऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वेपयन्तम् । स्व:ऽतरम् ॥ येन । समुद्रम् । आविथ । तम् । ईमहे ॥६३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे राजन् ! (येन) जिस बल से तू (दशग्वम्) दश गमनशील प्राणों या इन्द्रियों से युक्त (अध्रिगुम्) अजितेन्द्रिय या ‘अध्रिगु’ = अस्थिरगति वाले नाशवान् शरीर को (वेपयन्तम्) सञ्चालित करने वाले (स्वर्नरम्) सुख के नेता या सुखमय प्रकाशमय, नर, पुरुष, आत्मा को (आविथ) रक्षा करता है और (येन) जिससे (समुद्रम्) इस महान् आकाश और समुद्र उनमें विद्यमान चराचर जगत् को (आविथ) रक्षा करता है हम तो (तम् ईमहे) उसको जानें, पावें, प्राप्त करें, उसकी याचना करते हैं। राजा के पक्ष में—दश दिशाओं में भाग जाने वाले अधीर शत्रुको कपाने में समर्थ (स्वर्नरम्) सुखमय राष्ट्र के नेता पुरुष और (समुद्रम्) प्रजा और विशाल सेना समूह रूप समुद्र को जिस बलसे रक्षा करता है राजन् ! हम उसी बल को चाहते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ प्र० द्वि० भुवनः आप्रयः साधनो वा भौवनः। ३ तृ० च० भारद्वाजो वार्हस्पत्यः। ४–६ गोतमः। ७-९ पर्वतश्च ऋषिः। इन्दो देवता। ७ त्रिष्टुम् शिष्टा उष्णिहः। नवर्चं सूक्तम्॥

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