अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
म॒हाँ इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान् । इन्द्र॑: । प॒र: । च॒ । नु । म॒हि॒ऽत्वम् । अ॒स्तु॒ । व॒ज्रिणे॑ । द्यौ: । न । प्र॒थि॒ना । शव॑: ॥७१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शवः ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । इन्द्र: । पर: । च । नु । महिऽत्वम् । अस्तु । वज्रिणे । द्यौ: । न । प्रथिना । शव: ॥७१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर।
भावार्थ -
(प्रथिना) विस्तृत विस्तार से जिस प्रकार (द्यौः न) वह आकाश महान् है और विस्तृत प्रकाश से जिस प्रकार यह सूर्य महान् है उसी प्रकार वह (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् स्वामी भी (महान्) बड़ा और (परः च) सब से परे है। (वज्रिणे) उस वज्रधर परम शक्तिमान् की ही यह (महित्वम्) समस्त महिमा (अस्तु) है उसी का बड़ा भारी (शवः) बल है। राजा भी महान् और सर्वोत्कृष्ट हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—इन्द्रः॥ छन्दः—गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम॥
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