अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 16
सु॒तेसु॑ते॒ न्योकसे बृ॒हद्बृ॑ह॒त एद॒रिः। इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तेऽसु॑ते । निऽओ॑कसे । बृ॒हत् । बृ॒ह॒ते ।आ । इत् । अ॒रि: ॥ इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒ति॒ ॥७१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
सुतेसुते न्योकसे बृहद्बृहत एदरिः। इन्द्राय शूषमर्चति ॥
स्वर रहित पद पाठसुतेऽसुते । निऽओकसे । बृहत् । बृहते ।आ । इत् । अरि: ॥ इन्द्राय । शूषम् । अर्चति ॥७१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 16
विषय - परमेश्वर।
भावार्थ -
(बृहत् अरिः इत्) बड़े से बड़ा धन का स्वामी पुरुष भी (सुते सुते) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ से (नि ओकसे) अपने गुप्तरूप से निवास करने वाले (इन्द्राय) परमेश्वर के (शूषम् अर्चति) बल की अर्चना करता है।
राजा के पक्ष में—(बृहत् अरिः) बड़े से बड़ा शत्रु भी (सुते सुते न्योकसे) अभिषिक्त, या प्राप्त राष्ट्र राष्ट्र में, अर्थात् राष्ट्र के प्रत्येक भाग में विद्यमान (इन्द्राय) शत्रुनाशक राजा के (शूषम्) शोषणकारी बल को (अर्चति) मानता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—इन्द्रः॥ छन्दः—गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम॥
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