अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्र इ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । कु॒क्षि: । सो॒म॒ऽपात॑म: । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । पिन्व॑ते ॥ उ॒र्वी: । आप॑: । न । का॒कुद॑: ॥७१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । कुक्षि: । सोमऽपातम: । समुद्र:ऽइव । पिन्वते ॥ उर्वी: । आप: । न । काकुद: ॥७१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर।
भावार्थ -
जो इन्द्र, परमेश्वर (कुक्षिः) समस्त शक्तियों को अपने कोख में रखने वाला (सोमपातमः) संसार के समस्त ऐश्वर्य का सबसे बड़ा पालक होकर (समुद्र इव) समुद्र के समान अगाध भण्डार है (काकुदः) सब से श्रेष्ठ, समस्त दिशाओं में व्यापक (आपः उर्वीः न) जल जिस प्रकार भूमियों को सींचते हैं और उनको हराभरा करते हैं उसी प्रकार वह परमेश्वर समस्त प्राणियों और लोकों के अन्न जल और जीवन से सींचता है।
अथवा—वह समुद्र के समान महान् (पिन्वते) बढ़ता है (काकुदः आपः उर्वीः इव अस्ति) वह तालु में, मुख में होने वाले जलों के समान कभी सूखता नहीं। सायण॥
अथवा—(आपः) प्राण जिस प्रकार (काकुदः) वाणी को सेचन करते हैं उसी प्रकार वह (उर्वीः पिन्वते) भूमियों को सींचता है। दया०॥
राजा के पक्ष में—(यः) जो राजा (कुक्षिः) शत्रुओं से ऐश्वर्य आदि सार पदार्थ को सूर्य के समान चूस ले और जो (सोमपातमः) अपने राष्ट्र का सबसे उत्तम रक्षक होकर (काकुदः आपः उर्वीः न) मेघस्थ जल जिस प्रकार भूमियों को सींचते हैं उसी प्रकार वह (समुद्रः) समुद्र के समान गम्भीर और अपार ऐश्वर्यवान् होकर (उर्वीः) अपनी विशाल प्रजाओं को (पिन्वते) सींचता और बढ़ाता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—इन्द्रः॥ छन्दः—गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम॥
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