अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑। बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व: । द्वाभ्या॑म् । प॒र: । एक॑या । गा: । गुहा॑ । तिष्ठ॑न्ती: । अनृ॑तस्य । सेतौ॑ । बृह॒स्पति॑: । तम॑सि । ज्योति॑: । इ॒च्छन् । उत् । उ॒स्रा: । आ । अ॒क॒: । वि । हि । ति॒स्र: । आव॒रित्याथ॑: ॥९१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अवो द्वाभ्यां पर एकया गा गुहा तिष्ठन्तीरनृतस्य सेतौ। बृहस्पतिस्तमसि ज्योतिरिच्छन्नुदुस्रा आकर्वि हि तिस्र आवः ॥
स्वर रहित पद पाठअव: । द्वाभ्याम् । पर: । एकया । गा: । गुहा । तिष्ठन्ती: । अनृतस्य । सेतौ । बृहस्पति: । तमसि । ज्योति: । इच्छन् । उत् । उस्रा: । आ । अक: । वि । हि । तिस्र: । आवरित्याथ: ॥९१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 4
विषय - विद्वन्, राजा ईश्वर।
भावार्थ -
(बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी एवं बृहती द्यौ, पृथिवियों और जगत् की सृष्टि स्थिति संहारकारिणी महती शक्तियों का स्वामी या विद्वान् पुरुष (द्वाभ्यां परः) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों से परे (अवः) नीचे भीतर (गुहा) गुहा रूप हृदय में (तिष्ठन्तीः) विद्यमान (गाः) वेदवाणियों या ज्ञान-रश्मियों को (अनृतस्य) अव्यक्त संसार या जड़ या प्रकृति के (सेतौ) बांधने वाले (तमसि) तमोगुण में (ज्योतिः) अन्धकार में प्रकाश के समान तेजःस्वरूप सत्वमय ज्ञान की (इच्छन्) कामना करता हुआ (तिस्रः) तीनों प्रकार की (उस्राः) ज्ञानमय, कर्ममय, गानमय अर्थात् ऋग्, यजुः, साम तीनों प्रकार की वेद-विद्याओं को (उत् आ अकः) प्रकट करता है और (तिस्रः) तीनों को (वि आवः) विविध प्रकार से प्रकट करता है।
अध्यात्म में—(अवः द्वाभ्यां परः) नीच के दो द्वारों या वाणी या मन से परे (एकया) एकमात्र केवली चितिशक्ति रूप से (गुहा तिष्ठन्तीः) हृदय गुहा में या गुप्त आत्मा में स्थित (गाः) ज्ञान-ज्योतियों को (अनृतस्य) अनृत, असत् या मिथ्याज्ञान के (सेतौ) बांधने वाले (तमसि) अन्धकार रूप तामस आवरण में (ज्योतिः इच्छन्) ज्योति, ब्रह्मज्ञान को चाहता हुआ योगी (उस्राः) ऊर्ध्व, ब्रह्माण्ड, मस्तक में प्रकट रश्मियों को (उत् आवः) प्रकट करता हैं और (तिस्रः) तीनों द्वारों गुदा, हृदय और ब्रह्मरन्ध्र वा अधिष्ठान, मणिपूर और ब्रह्मरन्ध्र तीनों को (वि आवः) खोल लेता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य आङ्गिरस ऋषिः। बृहस्पति देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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