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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 6
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    इन्द्रो॑ व॒लं र॑क्षि॒तारं॒ दुघा॑नां क॒रेणे॑व॒ वि च॑कर्ता॒ रवे॑ण। स्वेदा॑ञ्जिभिरा॒शिर॑मि॒च्छमा॒नोऽरो॑दयत्प॒णिमा गा अ॑मुष्णात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । व॒लम् । र॒क्षि॒तार॑म् । दुघा॑नाम् । क॒रेण॑ऽइव । वि । च॒क॒र्त॒ । रवे॑ण ॥ स्वेदा॑ञ्जिऽभि: । आ॒ऽशिर॑म् । इ॒च्छमान: । अरो॑दयत् । प॒णिम् । आ । गा: । अ॒मु॒ष्णा॒त् ॥९१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघानां करेणेव वि चकर्ता रवेण। स्वेदाञ्जिभिराशिरमिच्छमानोऽरोदयत्पणिमा गा अमुष्णात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । वलम् । रक्षितारम् । दुघानाम् । करेणऽइव । वि । चकर्त । रवेण ॥ स्वेदाञ्जिऽभि: । आऽशिरम् । इच्छमान: । अरोदयत् । पणिम् । आ । गा: । अमुष्णात् ॥९१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (इन्द्रः) योगज विभूतिमान् योगी (दुधानां) ब्रह्मरस को दोहन करने वाली प्रकाश धाराओं को (रक्षितारं) रोक रखने वाले (वलं) तामस आवरण को (करेण इव) ‘कर’ अर्थात् करपत्र हिंसा साधन शस्त्र से जैसे शत्रु के देह को काट डाला जाता है और जिस प्रकार किरण से अन्धकार दूर हो जाता है उसी प्रकार (रवेण) भीतरी नाद रूप रव से (विचकर्ता) विनष्ट करता है और वह योगी ही पुनः (स्वेदांजिभिः) स्वेदों को प्रकट करने वाले प्राणों के आयमन रूप तपों द्वारा (आशिरम्) परमानन्द रस को (इच्छमानः) प्राप्त करना चाहता हुआ (पणिम्) देह में नाना व्यापार करने हारे प्राण को ही (आरोदयत्) दमन करता है। और तब (गाः) आत्मप्रकाश की ज्ञान-धाराओं या किरणों को (अमुष्णात्) प्राप्त करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य आङ्गिरस ऋषिः। बृहस्पति देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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