अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒जु दीध्या॑ना दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः। विप्रं॑ प॒दमङ्गि॑रसो॒ दधा॑ना य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं म॑नन्त ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम् । शंस॑न्त: । ऋ॒जु । दीध्या॑ना: । दि॒व: । पु॒त्रास॑: । असु॑रस्य । वी॒रा: ॥ विप्र॑म् । पद॑म् । अङ्गि॑रस: । दधा॑ना: । य॒ज्ञस्य॑ । धाम॑ । प्रथ॒मम् । म॒न॒न्त॒ ॥९१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः। विप्रं पदमङ्गिरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त ॥
स्वर रहित पद पाठऋतम् । शंसन्त: । ऋजु । दीध्याना: । दिव: । पुत्रास: । असुरस्य । वीरा: ॥ विप्रम् । पदम् । अङ्गिरस: । दधाना: । यज्ञस्य । धाम । प्रथमम् । मनन्त ॥९१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 2
विषय - विद्वन्, राजा ईश्वर।
भावार्थ -
(असुरस्य) ‘असु’ समस्त संसार के प्रेरक बल में रमण करने वाले (दिवः) तेजोमय, सूर्य के समान, तेजस्वी, परमेश्वर के (पुत्रासः) मानो पुत्र के सम्मान उसी से उत्पन्न (वीराः) वीर्यवान् महान् सामर्थ्यवान् विद्वान् लोग (ऋतम्) उस सत्य ज्ञान का (शंसन्तः) उपदेश करते हुए, उसी की स्तुति करते हुए (ऋजु) नित्य कल्यमाणमय स्वरूप का (दीध्यानाः) ध्यान करते हुए और स्वयं (विप्रम्) विविध ज्ञानों से पूर्ण (पदम्) ज्ञानगम्य, प्राप्तव्य परमपद को (दधानाः) धारण करते हुए उसका अभ्यास करते हुए (अङ्गिरसः) अग्नि के अङ्गिरों के समान तेजस्वी ज्ञानी विद्वान पुरुष (यज्ञसा) उस सब में पूजनीय उपास्य परमेश्वर के (धाम) धारण सामर्थ्य एवं तेज को (प्रथमं) सर्वश्रेष्ठ रूप से (मनन्त) मनन करते या उसका अभ्यास करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य आङ्गिरस ऋषिः। बृहस्पति देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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