अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 7
स ईं॑ स॒त्येभिः॒ सखि॑भिः शु॒चद्भि॒र्गोधा॑यसं॒ वि ध॑न॒सैर॑दर्दः। ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्वृष॑भिर्व॒राहै॑र्घ॒र्मस्वे॑देभि॒र्द्रवि॑णं॒ व्यानट् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । ई॒म् । स॒त्येभि॑: । सखि॑ऽभि: । शु॒चत्ऽभि॒: । गोऽधा॑यसम् । वि । ध॒न॒ऽसै: । अ॒द॒र्द॒रित्य॑दर्द: ॥ ब्रह्म॑ण: । पति॑: । वृष॑ऽभि: । व॒राहै॑: । घ॒र्मऽस्वे॑देभि: । द्रवि॑णम् । वि । आ॒न॒ट् ॥९१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं सत्येभिः सखिभिः शुचद्भिर्गोधायसं वि धनसैरदर्दः। ब्रह्मणस्पतिर्वृषभिर्वराहैर्घर्मस्वेदेभिर्द्रविणं व्यानट् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । ईम् । सत्येभि: । सखिऽभि: । शुचत्ऽभि: । गोऽधायसम् । वि । धनऽसै: । अदर्दरित्यदर्द: ॥ ब्रह्मण: । पति: । वृषऽभि: । वराहै: । घर्मऽस्वेदेभि: । द्रविणम् । वि । आनट् ॥९१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 7
विषय - विद्वन्, राजा ईश्वर।
भावार्थ -
(सः) वह ज्ञानवान्, निष्ठ योगी (सत्येभिः) बलवान्, सत्योपदेष्टा (सखिभिः) अपने मित्र, (शुचद्भिः) दीप्तिमान् तेजस्वी (धनसैः) ज्ञान धन के प्रदान करने वाले गुरुओं से जिस प्रकार शिष्य (र्गोधायसं) ज्ञान-वाणियों को रोक रखने वाले अज्ञान को नाश करता है उसी प्रकार वह योगी भी (सत्येभिः) बलवान् सत्यवान् (सखिभिः) मित्र के समान सदा साथ विद्यमान, अनुकूलगति वाले (शुचद्भिः) देह को शोधन करने वाले, मलदाहक (धनसैः) बल और ज्ञानप्रद प्राणों के बल से (ईम्) उस (गोधायसम्) प्रकाश के रोकने वाले अज्ञान-आवरण को (वि अदर्दः) विशेषरूप से नष्ट करता है। और (धर्म-स्वेदेभिः) पसीना बहाने वाले (वृषभिः) वलवान् या आनन्द वर्षक (वराहैः) सु आहृत, उत्तमरूप से वशीकृत, प्रत्याहार द्वारा दमन किये गये प्रबल प्राणों द्वारा (द्रविणम्) अति द्रुतगति वाले मन को भी (वि आनट्) विशेष रूप से वश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य आङ्गिरस ऋषिः। बृहस्पति देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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