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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 8
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    ते स॒त्येन॒ मन॑सा॒ गोप॑तिं॒ गा इ॑या॒नास॑ इषणयन्त धी॒भिः। बृह॒स्पति॑र्मिथोअवद्यपेभि॒रुदु॒स्रिया॑ असृजत स्व॒युग्भिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । स॒त्येन । धी॒भि: ॥ मनसा । गोऽपतिम् । गा: । इ॒या॒नास: । इ॒ष॒ण॒य॒न्त॒ । धी॒भि: ॥ बृह॒स्पति॑: । मि॒थ:ऽअवद्यपेभि: । उत् । उ॒स्रिया॑: । अ॒सृ॒ज॒त॒ । स्व॒युक्ऽभि॑: ॥९१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते सत्येन मनसा गोपतिं गा इयानास इषणयन्त धीभिः। बृहस्पतिर्मिथोअवद्यपेभिरुदुस्रिया असृजत स्वयुग्भिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । सत्येन । धीभि: ॥ मनसा । गोऽपतिम् । गा: । इयानास: । इषणयन्त । धीभि: ॥ बृहस्पति: । मिथ:ऽअवद्यपेभि: । उत् । उस्रिया: । असृजत । स्वयुक्ऽभि: ॥९१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    (ते) वे प्राणगण (सत्येन मनसा) सत्य ज्ञान से युक्त एवं सात्विक बल से युक्त मन से, मनके बल से प्रेरित होकर (गोपतिम्) ज्ञान वाणियों, प्रकाश-किरणों और इन्द्रियों के पति आत्मा को (इयानासः) प्राप्त होकर, उसके वश होकर (धाभिः) अपने धारण और ध्यान के सामर्थ्यों या कर्मों या क्रिया सामर्थ्यों द्वारा (गाः) उन ज्ञान-रश्मियों को (इषणयन्तः) प्रकट और प्रेरित करते रहते हैं। और (बृहस्पतिः) वह महती आत्मशक्ति का पालक योगी (मिथः) परस्पर एक दूसरे को (अवद्यपेभिः) गर्हणीय या निन्दनीय आचरण ले रक्षा करने वाले (स्वयुग्भिः) स्वतः समाहित होकर योग करने वाले विद्वानों के समान (अवद्यपेभिः) निन्दित विषय भोगों से रक्षा करते हुए (स्वयुग्भिः) स्व = आत्मा में स्वयं समाहित या स्थिर हुए प्राणगणों से (उस्त्रियाः) ऊर्ध्व ब्रह्माण्ड में सपर्ण करने वाली आनन्दरस धाराओं को (उत् असृजत) प्रकट करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य आङ्गिरस ऋषिः। बृहस्पति देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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