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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    व्यवात्ते॒ ज्योति॑रभू॒दप॒ त्वत्तमो॑ अक्रमीत्। अप॒ त्वन्मृ॒त्युं निरृ॑ति॒मप॒ यक्ष्मं॒ नि द॑ध्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒वा॒त् । ते॒ । ज्योति॑: । अ॒भू॒त् । अप॑ । त्वत् । तम॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । अप॑ । त्वत् । मृ॒त्युम् । नि:ऽऋ॑तिम् । अप॑ । यक्ष्म॑म् । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥१.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यवात्ते ज्योतिरभूदप त्वत्तमो अक्रमीत्। अप त्वन्मृत्युं निरृतिमप यक्ष्मं नि दध्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अवात् । ते । ज्योति: । अभूत् । अप । त्वत् । तम: । अक्रमीत् । अप । त्वत् । मृत्युम् । नि:ऽऋतिम् । अप । यक्ष्मम् । नि । दध्मसि ॥१.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 21

    भावार्थ -
    (ते) तेरे लिये (ज्योतिः) जीवन का प्रकाश प्रति दिन सूर्य रूप से और आत्मा में ज्ञान रूप से (व्यवात्) विशेष रूप से प्रकट होता हुआ (अभूत्) आता है। और (त्वत्) तुझ से (तमः) अन्धकार और मृत्यु (अप अक्रमीत्) दूर हो जाता है। और हम भी (त्वत्) तुझ से (निर्ऋतिम् मृत्युम्) पाप और पाप से होने वाली निःशेष दुःखकारी मृत्यु को (अप निदध्मसि) दूर करते हैं और (यक्ष्मम्) यक्ष्म नामक तपेदिक रोग को भी (अप नि दध्मसि) दूर करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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