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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    आहा॑र्ष॒मवि॑दं त्वा॒ पुन॒रागाः॒ पुन॑र्णवः। सर्वा॑ङ्ग॒ सर्वं॑ ते॒ चक्षुः॒ सर्व॒मायु॑श्च तेऽविदम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हा॒र्ष॒म् । अवि॑दम् । त्वा॒ । पुन॑: । आ । अ॒गा॒: । पुन॑:ऽनव: । सर्व॑ऽअङ्ग । सर्व॑म् । ते॒ । चक्षु॑: । सर्व॑म् । आयु॑: । च॒ । ते॒ । अ॒वि॒द॒म् ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहार्षमविदं त्वा पुनरागाः पुनर्णवः। सर्वाङ्ग सर्वं ते चक्षुः सर्वमायुश्च तेऽविदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहार्षम् । अविदम् । त्वा । पुन: । आ । अगा: । पुन:ऽनव: । सर्वऽअङ्ग । सर्वम् । ते । चक्षु: । सर्वम् । आयु: । च । ते । अविदम् ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 20

    भावार्थ -
    हे पुरुष ! जीव ! (आ अहार्षम्) मैं परमेश्वर तुझ को इस शरीर में प्राप्त कराता हूँ। और (त्वा अविदम्) तुझको स्वयं लिए रहता हूँ या तेरी खबर रखता हूँ। तू इस शरीर में (पुनः आगाः) बार बार आता है। और (पुनः नवः) पुनः पुनः नया होता है। हे (सर्वाङ्ग) समस्त अंगों से युक्त पुरुष ! (ते) तेरी (सर्वम्) समस्त (आयुः च) आयु (ते) तुझे (अविदम्) प्राप्त कराता हूं। ईश्वर हमें इस देह में लाता हमारी खबर रखता है, जीवन के योग्य सब पदार्थ देता है, हम सदा नये होकर उत्पन्न होते हैं और शरीर को भी प्रति-दिन वह नया बनाये रखता है, हमें इन्द्रियें ज्ञान प्राप्त करने के लिए देता है और वह दीर्घ जीवन का प्रदान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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