अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 26
अ॒ग्नी रक्षां॑सि सेधति शु॒क्रशो॑चि॒रम॑र्त्यः। शुचिः॑ पाव॒क ईड्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । रक्षां॑सि । से॒ध॒ति॒ । शु॒क्रऽशो॑चि: । अम॑र्त्य । शुचि॑: । पा॒व॒क: । ईड्य॑: ॥३.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नी रक्षांसि सेधति शुक्रशोचिरमर्त्यः। शुचिः पावक ईड्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । रक्षांसि । सेधति । शुक्रऽशोचि: । अमर्त्य । शुचि: । पावक: । ईड्य: ॥३.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 26
विषय - प्रजा पीडकों का दमन।
भावार्थ -
(अग्निः) अग्नि के समान शत्रु का तापक (शुक्र-शोचिः) शुद्ध, प्रदीप्त कान्ति से युक्त (अमर्त्यः) अविनाशी, ध्रुव, कभी मरने वाला, सदा प्रतिष्ठित होकर (रक्षांसि) प्रजापीड़क दुष्ट पुरुषों का (सेधति) निवारण करता है, विनाश करता है। वह (शुचिः) काम, अर्थ और धर्म कार्यों में शुद्ध हृदय, ईमानदार (पावकः) प्रजा के पापों को दूर कर उनको पवित्र करने वाला होकर (ईड्यः) स्तुति के योग्य होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
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