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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
    सूक्त - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - एकावसाना द्विपदानुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त

    पृ॑थि॒वी द॒ण्डो॒न्तरि॑क्षं॒ गर्भो॒ द्यौः कशा॑ वि॒द्युत्प्र॑क॒शो हि॑र॒ण्ययो॑ बि॒न्दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒वी । द॒ण्ड: । अ॒न्तरि॑क्षम् । गर्भ॑: । द्यौ: । कशा॑ । वि॒ऽद्युत् । प्र॒ऽक॒श: । हि॒र॒ण्यय॑: । बि॒न्दु: ॥१.२१॥।


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिवी दण्डोन्तरिक्षं गर्भो द्यौः कशा विद्युत्प्रकशो हिरण्ययो बिन्दुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिवी । दण्ड: । अन्तरिक्षम् । गर्भ: । द्यौ: । कशा । विऽद्युत् । प्रऽकश: । हिरण्यय: । बिन्दु: ॥१.२१॥।

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 21

    भावार्थ -
    प्रजापति का (दण्डः) दण्ड, दमन करने का बल (पृथिवी) पृथिवी है। सब प्राणी इसी पर अपने कर्म करते कर्मफल भोगते और व्यवस्थित रहते हैं। (अन्तरिक्षम् गर्भः) अन्तरिक्ष गर्भ है, इस के भीतर समस्त लोक लिपटे हुए हैं। (द्यौः कशा) द्यौः-सूर्य सब में प्रकाश करने और उनको अपने शासन में चलाने वाला पशुओं को हांकने वाले हण्टर के समान प्रेरक बल है। और (विद्युत) बिजली की शक्ति भी (प्रकशः) एक उत्तम प्रकार की चाबुक या प्रेरक बल है। (हिरण्ययः बिन्दुः) तेज से बने अर्थात् तैजस सूर्य ‘नैबुला’ आदि पदार्थ उस प्रजापति के वीर्य के बिन्दु के समान हैं जिनसे ब्रह्माण्ड में लक्षों सृष्टियां उत्पन्न होरही हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥

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