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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 104/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ओ त्ये नर॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ गु॒र्नू चि॒त्तान्त्स॒द्यो अध्व॑नो जगम्यात्। दे॒वासो॑ म॒न्युं दास॑स्य श्चम्न॒न्ते न॒ आ व॑क्षन्त्सुवि॒ताय॒ वर्ण॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओ इति॑ । त्ये । नरः॑ । इन्द्र॑म् । ऊ॒तये॑ । गुः॒ । नु । चि॒त् । तान् । स॒द्यः । अध्व॑नः । ज॒ग॒म्या॒त् । दे॒वासः॑ । म॒न्युम् । दास॑स्य । श्च॒म्न॒न् । ते । नः॒ । आ । व॒क्ष॒न् । सु॒ऽवि॒ताय । वर्ण॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओ त्ये नर इन्द्रमूतये गुर्नू चित्तान्त्सद्यो अध्वनो जगम्यात्। देवासो मन्युं दासस्य श्चम्नन्ते न आ वक्षन्त्सुविताय वर्णम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओ इति। त्ये। नरः। इन्द्रम्। ऊतये। गुः। नु। चित्। तान्। सद्यः। अध्वनः। जगम्यात्। देवासः। मन्युम्। दासस्य। श्चम्नन्। ते। नः। आ। वक्षन्। सुऽविताय। वर्णम् ॥ १.१०४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 104; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    त्ये ये नर ऊतय इन्द्रं सद्य ओ गुस्तांश्चिदयमध्वनो जगम्याद्ये देवासो दासस्य मन्युं श्चम्नन्ते नोऽस्माकं सुविताय प्रेरिताय दासाय वर्णं न्वावक्षन् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (ओ) आभिमुख्ये (त्ये) ये (नरः) (इन्द्रम्) सभादिपतिम् (ऊतये) रक्षार्थम् (गुः) प्राप्नुवन्ति (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (तान्) (सद्यः) (अध्वनः) सन्मार्गान् (जगम्यात्) भृशं गच्छेत् (देवासः) विद्वांसः (मन्युम्) क्रोधम्। मन्युरिति क्रोधनाम०। निघं० २। १३। (दासस्य) सेवकस्य (श्चम्नन्) हिंसन्तु श्चमुधातुर्हिंसार्थः। (ते) (नः) अस्माकम् (आ) (वक्षन्) वहन्तु प्रापयन्तु (सुविताय) प्रेरिताय दासाय (वर्णम्) आज्ञापालनस्वीकरणम् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    ये प्रजासेनास्था मनुष्याः सत्यपालनाय सभाद्यध्यक्षादीनां शरणं प्राप्नुयुस्तानेते यथावद्रक्षेयुः ये विद्वांसो वेदसुशिक्षाभ्यां मनुष्याणां दोषान्निवार्य्य शान्त्यादीन् सेवयेयुस्ते सर्वैः सेवनीयाः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (त्ये) जो (नरः) सज्जन (ऊतये) रक्षा के लिये (इन्द्रम्) सभा सेना आदि के अधीश के (सद्यः) शीघ्र (ओ, गुः) सम्मुख प्राप्त होते हैं (तान्) उनको (चित्) भी यह सभापति (अध्वनः) श्रेष्ठ मार्गों को (जगम्यात्) निरन्तर पहुँचावे। तथा जो (देवासः) विद्वान् जन (दासस्य) अपने सेवक के (मन्युम्) क्रोध को (श्चम्नन्) निवृत्त करें (ते) वे (नः) हम लोगों की (सुविताय) प्रेरणा को प्राप्त हुए दास के लिये (वर्णम्) आज्ञापालन करने को (नु) शीघ्र (आ, वक्षन्) पहुँचावें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जो प्रजा वा सेना के जन सत्य के राखने को सभा आदि के अधीशों के शरण को प्राप्त हों, उनकी वे यथावत् रक्षा करें। जो विद्वान् लोग वेद और उत्तम शिक्षाओं से मनुष्यों के क्रोध आदि दोषों को निवृत्तकर शान्ति आदि गुणों का सेवन करावें, वे सबको सेवन करने के योग्य हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    रक्षक प्रभु

    पदार्थ

    १. (त्ये) = गतमन्त्र के अनुसार हृदयदेश में प्रभु को आसीन करनेवाले वे (नरः) = मनुष्य (ऊतये) = रक्षा के लिए (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (आगुः) = प्राप्त होते हैं और (नु) = अब वे प्रभु (चित्) = निश्चय से (तान्) = उन रक्षण की कामनावाले पुरुषों को (सद्यः) = शीघ्र ही (अध्वनः) = मार्गों की ओर (जगम्यात्) = ले - चलते हैं [गमयतु] । मार्ग पर चलना ही रक्षण का साधन है । मार्गभ्रंश में ही काँटे लगते हैं । 

    २. मार्ग पर चलते हुए (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (दासस्य) = नाशक असुर के (मन्युम्) = क्रोध को (श्चम्नन्) = हिंसित करते हैं । क्रोध मनुष्य को खा जाता है , उसका नाश कर देता है । देव लोग इसको नष्ट करके अपना रक्षण करते हैं । 

    ३. (ते) = वे देव (नः) = हमें भी (सुविताय) = दुरित से दूर होकर उत्तम मार्ग पर ही [सु+इत] चलने के लिए (वर्णम्) = उस प्रभु के गुणवर्णन को , वर्णनम् = वर्णः  , प्रभु के स्तवन को (आवक्षन्) = प्राप्त कराएँ । प्रभु के गुणों का वर्णन करते हुए हम भी उन गुणों को धारण करने के लिए यत्नशील होंगे । जहाँ प्रभुस्मरण होता है , वहाँ असुरों का प्रवेश नहीं होता । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु की शरण में रहें । प्रभु हमें मार्ग पर चलाते हुए हमारा रक्षण करते हैं । प्रभु - गुण वर्णन करते हुए हम क्रोधादि से ऊपर उठकर सुवित [उत्तम मार्ग] का आक्रमण करते हैं । 
     

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    विषय

    कर्मानुरूप पुरस्कार ।

    भावार्थ

    ( त्ये ) वे नाना देशवासी ( नरः ) नायक, प्रजाओं के मुख्य पुरुष ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राजा और ज्ञानवान् विद्वान् के पास ( ऊतये ) रक्षा, शरण और ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( आ गुः ) आवें । वह ( नूचित् सद्यः ) शीघ्र ही ( तान् ) उनको ( अध्वनः ) उत्तम २ मार्गों का ( जगम्यात् ) उपदेश करे। ( देवासः ) दानशील, अन्नादि का दाता विद्वान् स्वामी ( दासस्य ) अपने अधीन सेवक जन के (मन्युम्) क्रोध, उद्वेग को ( चम्नन् ) सदा दूर करते रहें । ( ते ) वे ( नः ) हम प्रजाजनों के हितार्थं ( सुविताय ) उत्तम कार्य में लगाये गये को (वर्णम्) वरण करने योग्य उत्तम धन, वेतन आदि ( आवक्षन् ) प्राप्त करावें । अथवा—( देवासः ) देव विद्वान् गण, नाशकारी दुष्ट पुरुष के ( मन्युं ) क्रोध को नाश करें । और ( नः सुविताय ) हम में से उत्तम मार्ग पर जाने वाले को ( वर्णम् आवक्षन् ) उत्तम वर्ग, पद या धन प्राप्त करावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २, ४, ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ७ त्रिष्टुप् । ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे प्रजा व सेनेतील लोक सत्यरक्षणासाठी सभापती इत्यादीला शरण येतात. त्यांचे यथायोग्य रक्षण करावे. जे विद्वान लोक वेद व उत्तम शिक्षणाने माणसांच्या क्रोध इत्यादी दोषांना निवृत्त करून शांती इत्यादी गुणांचे सेवन करवितात त्यांना सर्वांनी ग्रहण करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those people who approach Indra for protection and pray for advancement, he leads, all of them, by the right path at once and always. May the devas, noblest powers of nature and humanity, allaying the passion and fear of the demon of opposition, open the path of progress and bless us with inspiration and guidance for onward movement and protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who come to Indra (President of the Assembly or the commander of the army ) to solicit his protection, may he quickly direct them to tread upon the path of righteousness. May the learned remove the wrath of their servants and make their attendants to obey them properly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रम्) सभाधिपतिम् = The President of the Assembly or Commander or the Army etc. (श्चम्नन्) हिंसन्तु श्चमुधातुहिंसार्थ: = Destroy or remove.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When men of the public or of the army approach the President of the Assembly or the Commander of the army, who they should protect them well. Those learned persons observe peace by giving the Vedic Knowledge and good education, removing their evils, should be served by all,

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