Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 104 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 104/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्रति॒ यत्स्या नीथाद॑र्शि॒ दस्यो॒रोको॒ नाच्छा॒ सद॑नं जान॒ती गा॑त्। अध॑ स्मा नो मघवञ्चर्कृ॒तादिन्मा नो॑ म॒घेव॑ निष्ष॒पी परा॑ दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । यत् । स्या । नीथा॑ । अद॑र्शि । दस्योः॑ । ओकः॑ । न । अच्छ॑ । सद॑नम् । जा॒न॒ती । गा॒त् । अध॑ । स्म॒ । नः॒ । म॒घ॒ऽवन् । च॒र्कृ॒तात् । इत् । मा । नः॒ । म॒घाऽइ॑व । नि॒ष्ष॒पी । परा॑ । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति यत्स्या नीथादर्शि दस्योरोको नाच्छा सदनं जानती गात्। अध स्मा नो मघवञ्चर्कृतादिन्मा नो मघेव निष्षपी परा दाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति। यत्। स्या। नीथा। अदर्शि। दस्योः। ओकः। न। अच्छ। सदनम्। जानती। गात्। अध। स्म। नः। मघऽवन्। चर्कृतात्। इत्। मा। नः। मघाऽइव। निष्षपी। परा। दाः ॥ १.१०४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 104; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    सभादिपतिना यद्या नीथा प्रजा दस्योरोको न यथा गृहं तथा पालितादर्शि स्या साऽच्छ जानती सदनं प्रतिगात् प्रत्येति। हे मघवन् निष्षपी संस्त्वं नोऽस्मान् मघेव मा परादाः। अधेत्यनन्तरं नोऽस्माकं चर्कृतादिदेव विरुद्धं मा स्म दर्शय ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (प्रति) (यत्) या (स्या) सा प्रजा (नीथा) न्यायरक्षणे प्रापिता (अदर्शि) दृश्यते (दस्योः) परस्वादातुश्चोरस्य (ओकः) स्थानम् (न) इव (अच्छ) सुष्ठु निपातस्य चेति दीर्घः। (सदनम्) अवस्थितिम् (जानती) प्रबुध्यमाना (गात्) एति (अध) अथ (स्म) आनन्दे (नः) अस्मान् (मघवन्) सभाद्यध्यक्ष (चर्कृतात्) सततं कर्त्तुं योग्यात्कर्मणः (इत्) निश्चये (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मघेव) यथा धनानि तथा (निष्षपी) स्त्रिया सह नितरां समवेतः (परा) (दाः) द्येरवखण्डयेर्विनाशयेः ॥ ५ ॥एतन्मन्त्रस्य कानिचित्पदानि यास्क एवं समाचष्टे−निष्षपी स्त्रीकामो भवति विनिर्गतपसाः पसः पसतेः स्पृशतिकर्मणः। मा नो म॒घेव॑ निष्ष॒पी परा॑ दाः। स यथा धनानि विनाशयति मा नस्त्वं तथा परादाः। निरु० ५ । १६।

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सुदृढं सम्यग्रक्षितं गृहं चोरेभ्यः शीतोष्णवर्षाभ्यश्च मनुष्यान् धनादिकं च रक्षति तथैव सभाधिपतिभी राजभिः सम्यग्रक्षिता प्रजैतान् पालयति यथा कामुकः स्वशरीरधर्मविद्याशिष्टाचारान् विनाशयति। यथा च प्राप्तानि बहूनि धनानीर्ष्याभिमानयोगेन मनुष्या अन्यायेषु बद्ध्वा हीनानि कुर्वन्ति तथा प्रजाविनाशं नैव कुर्युः। किन्तु प्रजाकृतान् सततमुपकारान् बुद्ध्वा निरभिमानसंप्रीतिभ्यामेतान् सदा पालयेयुः। नैव कदाचित् दुष्टेभ्यः शत्रुभ्यो भीत्वा पलायनं कुर्युः ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    सभा आदि के स्वामी ने (यत्) जो (नीथा) न्याय रक्षा को पहुँचाई हुई प्रजा (दस्योः) पराया धन हरनेवाले डांकू के (ओकः) घरके (न) समान पाली सी (अदर्शि) देख पड़ती है (स्या) वह (अच्छ) अच्छा (जानती) जानती हुई (सदनम्) घरको (प्रति, गात्) प्राप्त होती अर्थात् घरको लौट जाती है। हे (मघवन्) सभा आदि के स्वामी ! (निष्षपी) स्त्री के साथ निरन्तर लगे रहनेवाले तू (नः) हम लोगों को (मघेव) जैसे धनों को वैसे (मा, परा, दाः) मत बिगाड़े (अध) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों के (चर्कृतात्) निरन्तर करने योग्य काम से (इत्) ही विरुद्ध व्यवहार मत (स्म) दिखावे ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अच्छा दृढ़, अच्छे प्रकार रक्षा किया हुआ घर चोरों वा शीत, गर्मी और वर्षा से मनुष्य और धन आदि पदार्थों की रक्षा करता है वैसे ही सभापति राजाओं की अच्छी पाली हुई प्रजा इनको पालती है। जैसे कामी जन अपने शरीर, धर्म, विद्या और अच्छे आचरण को बिगाड़ता और जैसे पाये हुए बहुत धनों को मनुष्य ईर्ष्या और अभिमान से अन्यायों में फँसकर बहाते हैं वैसे उक्त राजा जन प्रजा का विनाश न करे किन्तु प्रजा के किये हुए निरन्तर उपकारों को जानकर अभिमान छोड़ और प्रेम बढ़ाकर इनको सब दिन पालें और दुष्ट शत्रुजनों से डरके पलायन न करें ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मलोक की ओर

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) = सर्वैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (नः) = हमें (मा) = मत (परादाः) = छोड़िए । हमें आपका साथ सदा प्राप्त रहे (यत्) = जिससे कि (स्या) = वह हमें (नीथा) = उत्कृष्ट मार्ग (प्रत्यदर्शि) = प्रतिदिन दिखता रहे , आपके सम्पर्क में हम मार्ग से भटकेंगे नहीं । आपके सम्पर्क में यह प्रजा (दस्योः ओकः अच्छ न) = दस्यु के घर की ओर नहीं जाती । प्रभु - सम्पर्क होने पर प्रजाओं में दास्यव वृत्तियों नहीं पनपती । 

    २. प्रभुसम्पर्क होने पर प्रजा (जानती) = ज्ञानवाली होती हुई (सदनम्) = अपने वास्तविक गृह ब्रह्मलोक की ओर (गात्) = जाती है । “सर्वं जिह्मं मृत्युपदं , आर्जवं ब्रह्मणः पदम् - कुटिलता मृत्यु का मार्ग है और सरलता ब्रह्ममार्ग है । यह व्यक्ति सरलता के मार्ग पर चलता हुआ निरन्तर ब्रह्म की ओर बढ़ता है । 

    ३. हे मघवन् ! (अध स्म) = अब शीघ्र ही (नः) = हमें (चर्कृतात्) = निरन्तर करने योग्य कार्यों से (इत्) = निश्चयपूर्वक (मा) = मत (परादाः) = दूर कीजिए । (इव) = जैसे कोई (निष्षपी) = स्त्रीकाम पुरुष [विनिर्गतपसाः - निरु०] (मघा) = धनों को व्यर्थ फेंक डालता है , उसी प्रकार आप हमें फेंक मत दीजिए । हम आपकी कृपादृष्टि में हों , त्याज्य न हों । ऐसा होने पर हमें मार्ग का दर्शन होगा । हम मार्ग पर चलते हुए दास्यव मार्ग से दूर रहते हुए आपको प्राप्त हो सकेंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के उपासक होते हैं तो मार्ग को देखते हुए उसपर चलते हुए अन्त में अपने मूलगृह ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    बुरे राजा में अच्छे होने के भ्रम की सम्भावना । राजा को अपने स्वार्थों में प्रजा के बरबाद न करने का उपदेश

    भावार्थ

    ( नीथा दयोः सदनम् ओकः न ) मार्ग जिस प्रकार भवन के रूप में बने डाकू के घर तक जाता है ठीक इसी प्रकार ( यत् ) जो ( स्या ) वह ( नीथा ) न्यायसरणि या आप्त प्रजा ( प्रति आदर्श ) दीख रही है वह एक मार्ग के समान ( दस्योः ओकः न सदनं ) डाकू के घर को ही अपना शरण सा ( जानती ) जानती हुई ( अच्छा गात् ) प्राप्त हो सकती है। अर्थात् प्रजाजन न्याय लेने के लिये डाकुओं के गढ़ को ही राजसभा सा जान कर उसमें भी प्रवेश कर सकती है । फलतः प्रजा भी बुरे राजा को अच्छा राजा जान कर उसके अधीन हो जाती है । ( अध) तब हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( चर्कृतात् इत् ) स्थिर रूप से निर्धारित किये धर्म मार्ग से ( नः ) हमें ले चल । और ( निःषपी मघा इव ) स्त्री-भोग का व्यसनी जिस प्रकार स्त्री व्यसन में ही नाना धन नाश कर डालता है उसी प्रकार तू ( नः ) हमें ( मा परादाः ) अपने व्यसनों के कारण पराये हाथों मत दे डाल, हमारा विनाश मत कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २, ४, ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ७ त्रिष्टुप् । ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चांगले रक्षण करणारे घर, चोर, थंडी, गर्मी व पाऊस यांच्यापासून माणसांचे व धनाचे रक्षण करते तसेच सभापती राजाकडून रक्षित प्रजेचे पालन होते. जसा कामी मनुष्य आपले शरीर, धर्म, विद्या व चांगले आचरण बिघडवतो व जसे अर्जित केलेले धन माणसे ईर्ष्या व अभिमान करून अन्यायात फसून नष्ट करतात तसे उक्त राजाने प्रजेचा नाश करू नये. प्रजेने केलेल्या निरंतर उपकारांना जाणून अभिमान सोडून प्रेम वाढवून त्यांचे सदैव पालन करावे व दुष्ट शत्रूंना घाबरून पलायन करू नये. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Seen is the path, the people know: like the one to the house of the robber and that which leads to the house of the good in full knowledge. Indra, lord of wealth and power, take us not away from the path of good action, throw us not away like the wealth of a wastour.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they (the King and his subjects) behave is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The subjects justly protected by the President of the Assembly etc. from thieves and robbers are seen as a well guarded dwelling place. Knowing well that they are well protected, they come and go to their houses. O President of the Assembly or Commander of the Army, do not cast us away as a libertine throws away wealth. Do not act against our interests.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मघवम्) सभाध्यक्ष = President of the Assembly etc. (निष्पपी) स्त्रिया सह नितरां समवेतः = Libertine, engrossed day and night in sexual pleasures.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a well-built and well-guarded house protects its in habitants from thieves and cold, heat and rain and preserves 32 the wealth, so the subjects properly protected by the President of the Assembly and other officers of the State, guard them well. The officers of the State should not ruin people as a libertine ruins his body, Dharma (righteousness ) knowledge and good manners or as the abundance of wealth is ruined by men out of jealousy and vanity, using it for unjust purposes. But they should always support the subjects with humility and love, knowing the good acts done by them for their welfare. They should never run away from wicked enemies out of fear.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top