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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 104/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यु॒योप॒ नाभि॒रुप॑रस्या॒योः प्र पूर्वा॑भिस्तिरते॒ राष्टि॒ शूर॑:। अ॒ञ्ज॒सी कु॑लि॒शी वी॒रप॑त्नी॒ पयो॑ हिन्वा॒ना उ॒दभि॑र्भरन्ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒योप॑ । नाभिः॑ । उप॑रस्य । आ॒योः । प्र । पूर्वा॑भिः । ति॒र॒ते॒ । राष्टि॑ । शूरः॑ । अ॒ञ्ज॒सी । कु॒लि॒शी । वी॒रऽप॑त्नी । पयः॑ । हि॒न्वा॒नाः । उ॒दऽभिः॑ । भ॒र॒न्ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युयोप नाभिरुपरस्यायोः प्र पूर्वाभिस्तिरते राष्टि शूर:। अञ्जसी कुलिशी वीरपत्नी पयो हिन्वाना उदभिर्भरन्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युयोप। नाभिः। उपरस्य। आयोः। प्र। पूर्वाभिः। तिरते। राष्टि। शूरः। अञ्जसी। कुलिशी। वीरऽपत्नी। पयः। हिन्वानाः। उदऽभिः। भरन्ते ॥ १.१०४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 104; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यदा शूरः प्रपूर्वाभिस्तिरते राज्यं संतरति तत्र राष्टि प्रकाशते तदायोरुपरस्य नाभिर्युयोप सा न न्यूना किन्त्वञ्जसी कुलिशी वीरपत्नी नद्यः पयो हिन्वाना उदभिर्भरन्ते ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (युयोप) युप्यति विमोहं करोति (नाभिः) बन्धनमिव (उपरस्य) मेघस्य। उपर इति मेघना०। निघं० १। १०। (आयोः) प्राप्तुं योग्यस्य। छन्दसीणः। उ० १। २। (प्र) (पूर्वाभिः) प्रजाभिस्सह (तिरते) प्लवते सन्तरति वा। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। विकरणव्यत्ययेन शश्च। (राष्टि) राजते। अत्र विकरणस्य लुक्। (शूरः) निर्भयेन शत्रूणां हिंसिता (अञ्जसी) प्रसिद्धा (कुलिशी) कुलिशेन वज्रेणाभिरक्ष्या (वीरपत्नी) वीरः पतिर्यस्याः सा (पयः) जलम् (हिन्वानाः) प्रीतिकारिका नद्यः (उदभिः) उदकैः (भरन्ते) पुष्यन्ति। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    सुराज्येन सर्वसुखं प्रजासु भवति सुराज्येन विना दुःखं दुर्भिक्षं च भवति। अतो वीरपुरुषेण रीत्या राज्यपालनं कर्त्तव्यमिति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे वर्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जब (शूरः) निडर शत्रुओं का मारनेवाला शूरवीर (प्र, पूर्वाभिः) प्रजाजनों के साथ (तिरते) राज्य का यथावत् न्याय कर पार होता और (राष्टि) उस राज्य में प्रकाशित होता है तब (आयोः) प्राप्त होने योग्य (उपरस्य) मेघ की (नाभिः) बन्धन चारों ओर से घुमड़ी हुई बादलों की दवन (युयोप) सबको मोहित करती है अर्थात् राजधर्म से प्रजासुख के लिये जलवर्षा भी होती है वह थोड़ी नहीं किन्तु (अञ्जसी) प्रसिद्ध (कुलिशी) जो सूर्य के किरणरूपी वज्र से सब प्रकार रही हुई अर्थात् सूर्य के विकट आतप से सूखने से बची हुई (वीरपत्नी) बड़ी-बड़ी नदी जिनसे बड़ा वीर समुद्र ही है वे (पयः) जल को (हिन्वानाः) हिड़ोलती हुई (उदभिः) जलों से (भरन्ते) भर जाती हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    अच्छे राज्य से सब सुख प्रजा में होता है और विना अच्छे राज्य के दुःख और दुर्भिक्ष आदि उपद्रव होते हैं, इससे वीरपुरुषों को चाहिये कि रीति से राज्य पालन करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    कुटिलता , अकर्मण्यता व कायरता से ऊपर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कुयव की योषाओं के मातृगर्भ में ही विनाश का उल्लेख है । वस्तुतः इन काम - क्रोधरूप योषाओं को प्रभु ही (युयोप) = [युप्यति - to efface , blot out] मिटाते हैं । प्रभु की ज्योति ही इन्हें दग्ध करती है । वे प्रभु (उपरस्य) = [nearer] अपने समीप आनेवाले (आयोः) = [एति] गतिशील , क्रियामय जीवनवाले उपासक को (नाभिः) = [नह बन्धने] अपने साथ बाँधनेवाले हैं । प्रभु के साथ बद्ध होने पर यह उपासक प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बनता है । 

    २. शक्तिसम्पन्न बनकर यह (पूर्वाभिः) = प्रथम व सर्वोत्कृष्ट शक्तियों से (प्रतिरते) = बढ़नेवाला होता है और (शूरः) = बुराइयों का संहार करनेवाला बनकर (राष्टिः) = अपना (राज्य) = शासन करता है और दीप्त होता है [राज दीप्तौ] । 

    ३. इस उपासक को (अंजसी) = [Honesty] प्रत्येक कार्य को ईमानदारी से करने की वृत्ति , अकुटिलता व सरलता तथा (कुलीशी) = [कुलौ - हस्ते शेते] हाथों में रहनेवाली क्रियाशीलता और (वीरपत्नी) = वीर की पत्नी , अर्थात् वीरता - कायरता न होना ये तीनों बातें (पयः) = आप्यायन को - वृद्धि को (हिन्वानाः) = प्राप्त कराती हुई (उदभिः भरन्ते) = शरीर में शक्ति के रूप में रहनेवाले इन (द कणों से भरती हैं [आपः रेतः] । कुटिलता , अकर्मण्यता व कायरता से दूर होना - इसकी वृद्धि के कारण बनते हैं और रेतः कणों के रक्षण के द्वारा इसे शक्ति से भर देते हैं । कुटिलता , अकर्मण्यता व कायरता ही सब अवनतियों का मूल हैं , ये शक्ति का भी नाश करती हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के उपासक बनकर जीवन को व्यवस्थित व दीप्त बनाएँ । कुटिलता , अकर्मण्यता व कायरता से ऊपर उठें । 
     

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    विषय

    तेजस्वी की सेना बलों और ऐश्वयों से वृद्धि ।

    भावार्थ

    ( उपरस्य ) मेघ के समान प्रजाओं को नाना ऐश्वर्य देने वाले ( आयोः ) सब प्रजाओं को परस्पर मिलाये रखने वाले, सबके जीवनाधार, राष्ट्र के प्राण स्वरूप पुरुषों का ( नाभिः ) केन्द्र या आश्रय होकर राजा ( युयोप ) सबको मोहित करता है । वह ( शूरः ) शूरवीर होकर समुद्र के समान ( पूर्वाभिः ) धनैश्वर्यों से पूर्ण, समृद्ध प्रजाओं के साथ (राष्टि) राज्य करता और प्रकाशित होता है । ( प्र तिरते ) खूब अधिक वृद्धि को प्राप्त होता है। जिस प्रकार ( पयः हिन्वानाः ) जल बहाती हुईं बढ़ती उमड़ती नदियां ( उदभिः ) जलों से समुद्र को ( भरन्ते ) भरती हैं उसी प्रकार उस समुद्र समान पुरुष को ( अञ्जसी ) नाना उत्तम गुणों से युक्त या अन्न समृद्धि से भरी पूरी ( कुलिशी ) कुलिश अर्थात् शस्त्रास्त्र से राष्ट्र की रक्षा करने वाली और ( वीरपत्नी ) वीर नायक को अपने पालक रूप से धारण करने वाली अथवा वीर्यवान् पुरुषों को पालन करने वाली प्रजाएं ( पयः हिन्वानाः ) बल वीर्य की वृद्धि करती हुई समुद्र को जल से समान ऐश्वर्यो से ( भरन्ते ) उसे पूर्ण कर देती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २, ४, ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ७ त्रिष्टुप् । ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चांगल्या राज्यात प्रजा सुखी असते व चांगले राज्य नसेल तर राज्यात दुःख व दुर्भिक्ष इत्यादी उत्पन्न होतात. यामुळे वीर पुरुषांनी योग्य पद्धतीने राज्य करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The life-string of the people’s energy, like the centre of the waters of the cloud, is implicit and hidden. And just as the sun breaks open the energy of the cloud with its rays and shines, so does Indra, the ruler, with the people themselves, release that energy and shines as a hero. And then, just as the straight and rapid, brilliant rivers fed by the heroic Indra, collecting streams of water, full to over flowing, move on, so the people, dynamic and brilliant, protected and guided by the heroic ruler, grow to their full capacity and, creating and collecting wealth and power, move on their way.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they behave is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A King who is like the navel or the Centre of men that unite all and who like clouds are the givers of various prosperity to the public, charms all by his noble conduct. He being a hero and destroyer of his enemies, shines forth along with prosperous subjects. He grows more and more. As flowing rivers with their water fill the ocean, so virtuous, prosperous and famous subjects who regard the brave king as their husband, fill him with riches.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (नाभिः) बन्धनमिव = Like the navel or centre. (उपरस्य) मेघस्य उपरइति मेघनाम (निघ० १.१०) = Of the cloud or of a man who is benevolent like a cloud. (आयोः:) प्राप्तुं योग्यस्य मनुष्यस्य छन्दसीण: (उणादि० १.२) = Of a man to be approached by all. यु-मिश्रणामिश्रणयोः = Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    On account of good Government, the subjects enjoy all happiness. Without good Government, there is misery and famine. Therefore a brave King should administer his State properly.

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