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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 104/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अधा॑ मन्ये॒ श्रत्ते॑ अस्मा अधायि॒ वृषा॑ चोदस्व मह॒ते धना॑य। मा नो॒ अकृ॑ते पुरुहूत॒ योना॒विन्द्र॒ क्षुध्य॑द्भ्यो॒ वय॑ आसु॒तिं दा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । म॒न्ये॒ । श्रत् । ते॒ । अ॒स्मै॒ । अ॒धा॒यि॒ । वृषा॑ । चो॒द॒स्व॒ । म॒ह॒ते । धना॑य । मा । नः॒ । अकृ॑ते । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । योनौ॑ । इन्द्र॑ । क्षुध्य॑त्ऽभ्यः । वयः॑ । आ॒ऽसु॒तिम् । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा मन्ये श्रत्ते अस्मा अधायि वृषा चोदस्व महते धनाय। मा नो अकृते पुरुहूत योनाविन्द्र क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। मन्ये। श्रत्। ते। अस्मै। अधायि। वृषा। चोदस्व। महते। धनाय। मा। नः। अकृते। पुरुऽहूत। योनौ। इन्द्र। क्षुध्यत्ऽभ्यः। वयः। आऽसुतिम्। दाः ॥ १.१०४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 104; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेताभ्यां परस्परं कथं प्रतिज्ञातव्यमित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे पुरुहूतेन्द्र वृषा त्वमकृते योनौ नोऽस्माकं वय आसुतिं च मा दाः त्वया क्षुध्यद्भ्योऽन्नादिकमधायि नोऽस्मान् महते धनाय चोदस्व। अधास्मै ते तवैत्च्छ्रदहं मन्ये ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (अध) अनन्तरम् (मन्ये) विजानीयाम् (श्रत्) श्रद्धां सत्याचरणं वा (ते) तव (अस्मै) (अधायि) धीयताम् (वृषा) सुखवर्षयिता (चोदस्व) प्रेर्ष्व (महते) बहुविधाय (धनाय) (मा) निषेधे (नः) अस्माकमस्मान् वा (अकृते) अनिष्पादिते (पुरुहूत) अनेकैः सत्कृत (योनौ) निमित्ते (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद शत्रुविदारक (क्षुध्यद्भ्यः) बुभुक्षितेभ्यः (वयः) कमनीयमन्नम् (आसुतिम्) प्रजाम् (दाः) छिन्द्याः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    न्यायाधीशादिभिराजपुरुषैरकृतापराधानां प्रजानां हिंसनं कदाचिन्नैव कार्य्यम्। सर्वदैताभ्यः करा ग्राह्या एनाः संपाल्य वर्धयित्वा विद्यापुरुषार्थयोर्मध्ये प्रवर्त्याऽऽनन्दनीयाः। एतत्सभापतीनां सत्यं कर्म प्रजास्थैः सदैव मन्तव्यम् ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर इन दोनों को परस्पर कैसी प्रतिज्ञा करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पुरुहूत) अनेकों से सत्कार पाये हुए (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देने और शत्रुओं का नाश करनेहारे सभापति ! (वृषा) अति सुख वर्षानेवाले आप (अकृते) विना किये विचारे (योनौ) निमित्त में (नः) हम लोगों के (वयः) अभीष्ट अन्न और (आसुतिम्) सन्तान को (मा, दाः) मत छिन्न-भिन्न करो और (क्षुध्यद्भ्यः) भूखों के लिये अन्न, जल आदि (अधायि) धरो, हम लोगों को (महते) बहुत प्रकार के (धनाय) धन के लिये (चोदस्व) प्रेरणा कर, (अध) इसके अनन्तर (अस्मै) इस उक्त काम के लिये (ते) तेरी (श्रत्) यह श्रद्धा वा सत्य आचरण मैं (मन्ये) मानता हूँ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    न्यायाधीश आदि राजपुरुषों को चाहिये कि जिन्होंने अपराध न किया हो उन प्रजाजनों को कभी ताड़ना न करें, सब दिन इनसे राज्य का कर धन लेवें, तथा इनको अच्छी प्रकार पाल और उन्नति दिलाकर विद्या और पुरुषार्थ के बीच प्रवृत्त कराकर आनन्दित करावें, सभापति आदि के इस सत्य काम को प्रजाजनों को सदैव मानना चाहिये ॥ ७ ॥

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    विषय

    कृतगृह में जन्म

    पदार्थ

    १.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अध) = अब (मन्ये) = मैं मन से आपका चिन्तन करता हूँ । (ते) = आपके (अस्मै) = इस [गतमन्त्र में वर्णित] बल के लिए (श्रत् अधायि) = श्रद्धा की गई है । आपके बल में हमारा पूर्ण विश्वास है । (वृषा) = अपनी शक्ति के द्वारा आप हमपर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं । आप हमें सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए (महते धनाय) = पूजनीय धन के लिए (चोदस्व) = प्रेरित कीजिए । आपसे शक्ति प्राप्त करके हम उत्तम मार्गों से धनों का अर्जन करें और अपनी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करके सुखी हो सकें । 

    २. हे (पुरुहूत) = पालन व पूरण करनेवाली है प्रार्थना जिसकी , ऐसे प्रभो ! आप (नः) = हमें (अकृते योनौ मा) = जिन घरों में ज्ञान , शक्ति व धन किसी भी पदार्थ का निर्माण नहीं हुआ , उन घरों में जन्म मत दीजिए । हमारा जन्म ज्ञानी ब्राह्मणों के घरों में , शक्तिशाली क्षत्रियों के घरों में अथवा दानी वैश्य - कुलों में हो - शूद्र - गृह में नहीं । 

    ३. इन घरों में जन्म देकर (क्षुध्यद्भ्यः) = खूब भूखवाले हमारे लिए (वयः) = आयुष्यवर्धक अन्न को तथा (आसुतिम्) = सवन किये गये दुग्ध व रस आदि पेय पदार्थों को (दाः) = दीजिए । आपकी कृपा से हम अन्नाद हों और अन्नवाले हों । हमारी पाचन - शक्ति भी उत्तम हो और खान - पान के लिए उत्तम पदार्थ भी हमें सुलभ हों । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा जन्म उत्तम गृहों में हो । वहाँ खान - पान की कमी न हो तथा खाने की शक्ति भी ठीक से बनी रहे । 
     

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    विषय

    प्रजापालन सम्बन्धी राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( पुरुहूत ) अनेक प्रजाओं से सत्कार करने योग्य ! आदरणीय, माननीय राजन् ! ( अध ) मैं भी ( ते अस्मै ) तेरा ( मन्ये ) मान करता हूं । ( ते ) तेरे कार्य और वचन ( श्रत् अधायि ) सत्य और आदर योग्य माना जाय तू ( वृषा ) सब सुखों को वर्षाने हारा, मेघ और सूर्य के समान उदार, बलवान् होकर ( महते धनाय ) बड़े भारी ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये ( चोदस्व ) प्रेरित कर । हे राजन् ( नः ) हमें ( अकृते योनौ ) वे बने, बिन सजे, टूटे फूटे, ढहे घर में ( मा दाः ) मत रख, और ( नः क्षुद्द्यद्भ्यः ) हम में से भूख से पीड़ित जनों को ( वयः ) अन्न और ( आसुतिम् ) दूध आदि पान करने योग्य पदार्थ ( दाः ) प्रदान कर, (२) परमेश्वरपक्ष में—–हे स्तुत्य ! मैं तेरा मनन करता हूं । तुझ पर श्रद्धा है। तू हमें महान् ऐश्वर्य की तरफ ले चल । ( अकृते योनौ ) कर्म और उत्तम कर्मफल से रहित योनि अर्थात् भोगयोनि पशु आदि शरीर में मत डाल । हम भूखे प्राणियों को अन्न और जल दूध आदि प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २, ४, ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ७ त्रिष्टुप् । ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यांनी अपराध केलेला नाही त्या प्रजाजनांना न्यायाधीश व राजपुरुषांनी कधी ताडना करू नये. सदैव त्यांच्याकडून राज्याचा कर वसूल करावा व त्यांचे चांगल्या प्रकारे पालन करून त्यांना वाढवावे. विद्या व पुरुषार्थात प्रवृत्त करून आनंदित करावे. सभापती इत्यादीच्या सत्य कामाला प्रजाजनांनी सदैव मानावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And I believe in you. We have reposed full faith in you for this life of joy. Great lord of strength and generosity, inspire us to achieve great wealth and honour. Honoured and invoked by many, O lord, do not deliver us, our life and descendants, unto an ignoble state of existence. Indra, provide ample food and soma drink for the hungry and thirsty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they ( The King and the subjects) take pledges is taught further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly) giver of great prosperity and slayer of enemies, you who art invoked by many, showerer of happiness, do not deprive us of good food and noble off-spring for the fault not done by us. You who provide food to the hungry, direct us to great wealth. Do not consigns to destitute dwelling. I place my trust in you and truthful conduct.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (श्रत्) श्रद्धां सत्याचरणं वा = Genuine faith and truthful conduct. (योनौ) निमित्ते = For reason. (वय:) कमनीयम् अन्नम् = Admirable or good food. (आसुतिम्) प्रजाम् = Off-spring or children. (दा:) छिन्द्या: = Cut into pieces or destroy (derived from) दैप्-लवने

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The judges and other dispensers of justice should never punish innocent subjects. They should collect taxes from them and should make them grow in every manner in wisdom and industriousness, thus making them happy and full of bliss. The people of the public should have faith in this true deed of the President of the Assembly and other officers of the State.

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