ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 104/ मन्त्र 3
अव॒ त्मना॑ भरते॒ केत॑वेदा॒ अव॒ त्मना॑ भरते॒ फेन॑मु॒दन्। क्षी॒रेण॑ स्नात॒: कुय॑वस्य॒ योषे॑ ह॒ते ते स्या॑तां प्रव॒णे शिफा॑याः ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । त्मना॑ । भ॒र॒ते॒ । केत॑ऽवेदाः । अव॑ । त्मना॑ । भ॒र॒ते॒ । फेन॑म् । उ॒दन् । क्षी॒रेण॑ । स्ना॒तः॒ । कुय॑वस्य । योषे॒ इति॑ । ह॒ते इति॑ । ते इति॑ । स्या॒ता॒म् । प्र॒व॒णे । शिफा॑याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव त्मना भरते केतवेदा अव त्मना भरते फेनमुदन्। क्षीरेण स्नात: कुयवस्य योषे हते ते स्यातां प्रवणे शिफायाः ॥
स्वर रहित पद पाठअव। त्मना। भरते। केतऽवेदाः। अव। त्मना। भरते। फेनम्। उदन्। क्षीरेण। स्नातः। कुयवस्य। योषे इति। हते इति। ते इति। स्याताम्। प्रवणे। शिफायाः ॥ १.१०४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 104; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजप्रजे परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यः केतवेदा राजपुरुषस्त्मना प्रजाधनमवभरतेऽन्यायेन स्वीकरोति यश्च प्रजापुरुषस्त्मना फेनं वर्धितं राजधनमवभरतेऽधर्मेण स्वीकरोति तौ क्षीरेणोदन् जलेन पूर्णे जलाशये स्नात उपरिष्टाच्छुद्धौ भवतोऽपि यथा कुयवस्य योषे शिफायाः प्रवणे हते स्यातां तथैव विनष्टौ भवतः ॥ ३ ॥
पदार्थः
(अव) (त्मना) आत्मना (भरते) विरुद्धं धरति (केतवेदाः) केतः प्रज्ञातं वेदो धनं येन सः। केत इति प्रज्ञानाम०। निघं० ३। ९। (अव) (त्मना) आत्मना (भरते) अन्यायेन स्वीकरोति (फेनम्) चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितं धनम् (उदन्) उदकमये जलाशये (क्षीरेण) जलेन। क्षीरमित्युदकना०। निघं० १। १२। (स्नातः) स्नानं कुरुतः (कुयवस्य) कुत्सिता धर्माधर्ममिश्रिता व्यवहारा यस्य तस्य (योषे) कृतपूर्वापरविवाहे परस्परं विरुद्धे स्त्रियाविव (हते) हिंसिते (ते) (स्याताम्) (प्रवणे) निम्नप्रवाहे (शिफायाः) नद्याः। अत्र शिञ् निशाने धातोरौणादिकः फक् प्रत्ययः ॥ ३ ॥
भावार्थः
यः प्रजाविरोधी राजपुरुषो राजविरोधी वा प्रजापुरुषोऽस्ति न खलु तौ सुखोन्नतिं कर्त्तुं शक्नुतः। यो राजपुरुषः पक्षपातेन स्वप्रयोजनाय प्रजापुरुषान् पीडयित्वा धनं संचिनोति। यः प्रजापुरुषस्तेयकपटाभ्यां राजधनस्य नाशं च तौ यथा सपत्न्यौ परस्परस्य कलहक्रोधाभ्यां नद्या मध्ये निमज्य प्राणांस्त्यजतस्तथा सद्यो विनश्यतः। तस्माद्राजपुरुषः प्रजापुरुषेण प्रजापुरुषो राजपुरुषेण च सह विरोधं त्यक्त्वाऽन्योऽन्यस्य सहायकारी भूत्वा सदा वर्त्तेत ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा और प्रजा परस्पर कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है।
पदार्थ
(केतवेदाः) जिसने धन जान लिया है वह राजपुरुष (त्मना) अपने से प्रजा के धन को (अव, भरते) अपनाकर धन लेता है अर्थात् अन्याय से ले लेता है और जो प्रजापुरुष (त्मना) अपने से (फेनम्) व्याज पर व्याज ले-लेकर बढ़ाये हुए वा और प्रकार अन्याय से बढ़ाये हुए राजधन को (अव, भरते) अधर्म से लेता है वे दोनों (क्षीरेण) जल से पूरे भरे हुए (उदन्) जलाशय अर्थात् नद-नदियों में (स्नातः) नहाते है उससे ऊपर से शुद्ध होते भी जैसे (कुयवस्य) धर्म और अधर्म से मिले जिसके व्यवहार हैं उस पुरुष की (योषे) अगले-पिछले विवाह की परस्पर विरोध करती हुई स्त्रियाँ (शिफायाः) अति काट करती हुई नदी के (प्रवणे) प्रबल बहाव में गिरकर (हते) नष्ट (स्याताम्) हों वैसे नष्ट हो जाते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो प्रजा का विरोधी राजपुरुष वा राजा का विरोधी प्रजापुरुष है ये दोनों निश्चय है कि सुखोन्नति को नहीं पाते हैं। और जो राजपुरुष पक्षपात से अपने प्रयोजन के लिये प्रजापुरुषों को पीड़ा देके धन इकठ्ठा करता तथा जो प्रजापुरुष चोरी वा कपट आदि से राजधन को नाश करता है वे दोनों जैसे एक पुरुष की दो पत्नी परस्पर अर्थात् एक दूसरे से कलह करके क्रोध से नदी के बीच गिर के मर जाती है वैसे ही शीघ्र विनाश को प्राप्त हो जाते हैं, इससे राजपुरुष प्रजा के साथ और प्रजापुरुष राजा के साथ विरोध छोड़के परस्पर सहायकारी होकर सदा अपना वर्त्ताव रक्खें ॥ ३ ॥
विषय
केतवेदाः
पदार्थ
१. (केतवेदाः) = [केतं वेदो यस्य] ज्ञानरूप धनवाला , ज्ञान को ही धन समझनेवाला व्यक्ति (त्मना) = स्वयं औरों पर निर्भर न करता हुआ (अवभरते) = सब आवश्यकताओं का भरण व पूरण कर लेता है [भृ to acquire , to gain] । यह अपनी आवश्यकताओं को अधिक बढ़ाता भी नहीं । यह उन्हें मर्यादित रखता हुआ उनका पूरण करने में स्वयं समर्थ होता है । यह अपनी आवश्यकताओं को (त्मना) = स्वयं (अवभरते) = इस प्रकार पूरण कर लेता है , जैसे कि (उदन्) = पानी में (फेनम्) = झाग को । बहते हुए पानी में झाग स्वयं पैदा हो जाता है । गति फेन का कारण बनती है । इसी प्रकार इस गतिशील ज्ञानी पुरुष के जीवन में क्रिया के कारण धन तो स्वयं ही उत्पन्न हो जाता है ।
२. यह ज्ञानी पुरुष [क] (क्षीरेण स्नातः) = दूध से नहाया हुआ होता है । ‘दूध से नहाना’ - यह वाक्यांश [Affluence] का संकेत करता है । इस ज्ञानी को धन की कमी नहीं रहती । इसके घर में दूध की नदियाँ बहती हैं , [ख] ‘क्षीरेण स्नातः’ का यह भी अर्थ है कि यह वेदवाणीरूप गौ के ज्ञानरूप दुग्ध से स्नान किये होता है । ज्ञान इसे पवित्र बना देता है । [ग] क्षीरेण स्नातः एक लोकोक्ति भी है , अर्थात् सच्चा - सुच्चा मनुष्य , यथा - ‘वह तो दूध का नहाया है’!
३. इसके जीवन में (कुयवस्य) = बुराई का मिश्रण करनेवाले आसुरीभाव [कु+यु = मिश्रण] की (ते योषे) = वे काम - क्रोधरूपी पत्नियाँ (शिफायाः प्रवणे) = [शिफा - Mother , प्रवण Belly] मातृगर्भ में ही (हते स्याताम्) = नष्ट हो जाती हैं । काम - क्रोध के कारण ही सब पाप होते हैं । इसी से काम - क्रोध को यहाँ ‘कुयव’ की पत्नियों के रूप में कहा है । ज्ञान होने पर ये पनपते नहीं । इनका मूल में ही विध्वंस हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी को आवश्यक धन तो स्वतः प्राप्त होता है । ज्ञान के प्रकट होने पर काम - क्रोध का भी मूल में ही नाश हो जाता है ।
विषय
स्वार्थ और अन्याय से धन हरने की निन्दा ।
भावार्थ
एक पुरुष ( केतवेदाः ) ऐश्वर्य प्राप्त करके और ज्ञानवान् होकर भी ( त्मना ) अपने मतलब से, अपने स्वार्थ से ( केनम् ) चक्र वृद्धि आदि द्वारा बढ़े धन और ज्ञान को ( अव भरते ) नीच उपाय से प्राप्त करता है और नीच कार्य में ज्ञान का उपयोग करता है और दूसरा ( मना अव भरते ) स्वभावतः नीच उपाय से धनादि हरता है वे दोनों ( उदन् ) जलाशय में मानों ( क्षीरेण स्नातः ) जल से व्यर्थ नहाते हैं । वे दोनों भीतर मलिन होते हैं । वे दोनों (कुयवस्य) कुत्सित यव वाले अर्थात् दरिद्र की (योषे इव) स्त्रियां जिस प्रकार (शिफायाः प्रवणे) नदी की ढाल में खड़ी अथवा परस्पर के आक्षेप, निन्दा कलहवृत्ति के नीचे व्यवहार में पड़कर आपस में लड़ती और नष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार वे दोनों भी नष्ट हो जाते हैं । (२) अथवा—( यः केतवेदाः त्मना अवभरते ) ऐश्वर्य प्राप्ति का उत्तम उपाय ज्ञान करके भी स्वार्थ के निमित्त नीच उपाय से धन संग्रह करता है वह मानो ( क्षोरेण स्नातः ) जल से स्नान करके भी ( त्मना ) अपने निमित्त ( उदन् ) जल में ( फेनम् अवभरते ) फेना ही प्राप्त करता है । और यदि ( कुयवस्य ) कुत्सित अन्न खाने वाले दरिद्र पुरुष की ( योषे स्याताम् ) दो स्त्रियां हों तो वे दोनों ( शिफायाः प्रवणे ) नदी प्रवाह के समान कलह के नीच व्यवहार में डूब कर ( ते हते स्याताम् ) वे दोनों नष्ट हो जाती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
२, ४, ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ७ त्रिष्टुप् । ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेथे प्रजेविरोधी राजपुरुष व राजाच्या विरोधी प्रजा असेल तर ते दोन्ही सुखाची वाढ करू शकत नाहीत व जो राजपुरुष भेदभाव करून आपल्या प्रयोजनासाठी प्रजेला त्रास देऊन धन एकत्र करतो व जी प्रजा चोरीने किंवा कपटाने राजधनाचा नाश करते ते दोन्ही एका पुरुषाच्या जशा दोन पत्नी परस्पर अर्थात एक दुसरीबरोबर भांडण करून क्रोधाने नदीत बुडून मरतात तसे तात्काळ नष्ट होतात. त्यासाठी राजाने प्रजेबरोबर व प्रजेने राजाबरोबर विरोध सोडून परस्परांना साह्य करणारे वर्तन करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The clever financier carries away the wealth of others for his heart’s desire. He syphons away the nation’s wealth down to the scum with a passion and wallows in the milky waters of his bath. But bathed and anointed with milk, like the rival mistresses of a swindler both dying of violent jealousy, he would drown in the whirlpool of the flood of his own creation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the King and his subjects behave towards one another is taught in the 3rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
If a Government servant knowing the nature of wealth misappropriates the public funds or a man of the public takes as bribe the money belonging to the State and increased with compound interest, both of them are ruined like the two querulous and jealous wives of a man committing suicide by drowning themselves in the flow or current of a river.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(फेनम्) चक्रवृद्ध यादिना वर्घितं धनम् = The wealth multiplied by compound interest etc. (क्षीरेण) जलेन क्षीरमित्युदकनाम || (निघ० १. १२) (कुयवस्य) कुत्सिता धर्माधर्ममिश्रिता.व्यवहारा यस्य तस्य । . = Of a person whose conduct is mixed with righteousness and un-righteousness. (शिफायाः) नद्याः अत्र शिञ् निशाने इति धतोरौरणणदिकः फक् प्रत्ययः । = Of a river.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A Government servant against the interest of the public or a man of the public who acts in opposition to the righteous Government cannot enjoy happiness. A Government Servant or officer who in order to achieve his self-interest causes harm to the subjects prejudicially and earns much wealth and a man belonging to the public who misuses the Government money by theft and deceit-both of them are ruined like the two wives of an unrighteous wealthy person who drown themselves in the flow or current of the river out of quarrel with and anger towards each other. Therefore a servant of the State should give up opposition to the men of the public and the public should not have any kind of ill-feeling towards the officers or workers of the State. They should co-operate with one another,
Translator's Notes
The simile clearly indicates the evil results of polygamy which is against the teachings of the Vedas. Ludwig's explanation (as quoted by Griffith in his footnote) is simply absurd and mischievous. It is that while the poor Arya who can only wish for the wealth which he does not possess has not even ordinary water to wash himself in, the wives of the enemy, in the insolent pride of their riches, bathe in milk (Quoted by Griffith in his foot-note on the Mantra 1. 104. 3)
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