ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
तत्स॑वि॒ता वो॑ऽमृत॒त्वमासु॑व॒दगो॑ह्यं॒ यच्छ्र॒वय॑न्त॒ ऐत॑न। त्यं चि॑च्चम॒समसु॑रस्य॒ भक्ष॑ण॒मेकं॒ सन्त॑मकृणुता॒ चतु॑र्वयम् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । स॒वि॒ता । वः॒ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ । अ॒सु॒व॒त् । अगो॑ह्यम् । यत् । श्र॒वय॑न्तः । ऐत॑न । त्यम् । चि॒त् । च॒म॒सम् । असु॑रस्य । भक्ष॑णम् । एक॑म् । सन्त॑म् । अ॒कृ॒णु॒त॒ । चतुः॑ऽवयम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सविता वोऽमृतत्वमासुवदगोह्यं यच्छ्रवयन्त ऐतन। त्यं चिच्चमसमसुरस्य भक्षणमेकं सन्तमकृणुता चतुर्वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। सविता। वः। अमृतऽत्वम्। आ। असुवत्। अगोह्यम्। यत्। श्रवयन्तः। ऐतन। त्यम्। चित्। चमसम्। असुरस्य। भक्षणम्। एकम्। सन्तम्। अकृणुत। चतुःऽवयम् ॥ १.११०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 110; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे बुद्धिमन्तो यूयं यः सविता वो यदमृतत्वमासुवत् तद्गोह्यं श्रवयन्तः सकला विद्या ऐतन विज्ञापयत। असुरस्य चमसं त्यं भक्षणं चिदिव चतुर्वयमेकं सन्तमकृणुत ॥ ३ ॥
पदार्थः
(तत्) (सविता) ऐश्वर्यप्रदो विद्वान् (वः) युष्मभ्यम् (अमृतत्वम्) मोक्षभावम् (आ) (असुवत्) ऐश्वर्ययोगं कुर्यात् (अगोह्यम्) गोप्तुमनर्हम् (यत्) (श्रवयन्तः) श्रावयन्तः (ऐतन) विज्ञापयत (त्यम्) अमुम् (चित्) इव (चमसम्) चमन्त्यस्मिन् मेघे (असुरस्य) असुषु प्राणेषु रतस्य। असुरताः। निरु० ३। ८। (भक्षणम्) सूर्य्यप्रकाशस्याभ्यवहरणम् (एकम्) असहायम् (सन्तम्) वर्त्तमानम् (अकृणुत) कुरुत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (चतुर्वयम्) चत्वारो धर्मार्थकाममोक्षा वया व्याप्तव्या येन तम् ॥ ३ ॥
भावार्थः
हे विद्वांसो यथा मेघः प्राणपोषकान्नजलादिपदार्थप्रदो भूत्वा सुखयति तथैव यूयं विद्यादातारो भूत्वा विद्यार्थिनो विदुषः संपाद्य सूपकारान् कुरुत ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे बुद्धिमानो ! तुम जो (सविता) ऐश्वर्य्य का देनेवाला विद्वान् (वः) तुम्हारे लिये (यत्) जिस (अमृतत्वम्) मोक्षभाव के (आ, असुवत्) अच्छे प्रकार ऐश्वर्य्य का योग करे (तत्) उसको (अगोह्यम्) प्रकट (श्रवयन्तः) सुनाते हुए सब विद्याओं को (ऐतन) समझाओ, (असुरस्य) जो प्राणों में रम रहा है, उस मेघ के (चमसम्) जिसमें सब भोजन करते हैं अर्थात् जिससे उत्पन्न हुए अन्न को सब खाते हैं (त्यम्) उस (भक्षणम्) सूर्य के प्रकाश को निगल जाने के (चित्) समान (चतुर्वयम्) जिसमें धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष हैं ऐसे (एकम्) एक (सन्तम्) अपने वर्त्ताव को (अकृणुत) करो ॥ ३ ॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! जैसे मेघ प्राण की पुष्टि करनेवाले अन्न आदि पदार्थों को देनेवाला होकर सुखी करता है, वैसे ही आप लोग विद्या के दान करनेवाले होकर विद्यार्थियों को विद्वान् कर सुन्दर उपकार करो ॥ ३ ॥
विषय
‘एक’ चार शाखाओंवाला
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जो प्रभु को प्राप्त करते हैं उन (वः) = आपके लिए (तत् सविता) = वह सर्वव्यापक [तन् विस्तारे] सर्वोत्पादक प्रभु (अमृतत्वम्) = अमृतत्व को (आसुवत्) = उत्पन्न करता है । ये लोग रोगों का शिकार नहीं होते , पूर्ण आयुष्य को प्राप्त होनेवाले होते हैं ।
२. (यत्) = जो (अगोह्यम्) = न छिपा हुआ , अर्थात् प्रकट हुआ है , वेदज्ञान है उसे (श्रवयन्तः) = सुनने की कामना करते हुए (ऐतन) = ये गति करते हैं । हृदय की निर्मलता के कारण हृदयस्थ प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।
३. (त्यम्) = उस (चित्) = निश्चय से (चमसम्) = आचमन करने योग्य , खाने योग्य [चमस - a cake] (असुरस्य) = प्राणशक्ति देनेवाले प्रभु के (भक्षणम्) = भोजन को एक (सन्तम्) = जो ज्ञान के दृष्टिकोण से एक है , उस एक वेदज्ञान को आप (चतुर्वयम्) = चार शाखाओंवाला [वयाः शाखाः - नि० १/४] चार भागों में विभक्त (अकृणुत) = करते हो । मूल में वेदज्ञान एक है । वह “ऋक् , यजुः , साम व अथर्व” इन चारों में बँट जाता है । ऋग्वेद प्रकृति का ज्ञान देता हुआ ‘विज्ञानवेद’ कहलाता है , यजुर्वेद जीव के कर्तव्यभूत यज्ञों का प्रतिपादन करता हुआ ‘कर्मवेद’ होता है , प्रभु की उपासना का प्रतिपादन करता हुआ सामवेद ‘उपासनावेद’ है और मनुष्य को नीरोग तथा निर्वैर बनाकर ब्रह्म को प्राप्त करानेवाला अथर्ववेद ‘ब्रह्मवेद’ है । एवं , यह प्रभु का दिया हुआ ज्ञान एक होता हुआ चार शाखाओंवाला कहलाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ऋभुओं को [क] प्रभु अमृतत्व प्राप्त कराते हैं , [ख] ये वेदज्ञान को सुनने की कामना करते हैं , [ग] एक वेदज्ञान को ‘ऋक्’ आदि चार भागों में बाँटकर ग्रहण करते हैं ।
विषय
विद्वानों, शिल्पिजनों तथा वीर पुरुषों के कर्तव्य, उत्तम कोटि के मुमुक्ष जनों के लिये उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( सविता ) सूर्य जिस प्रकार ( अमृतत्वम् ) अमृत, चेतनता, जीवन या अन्न और प्राण को (आसुवत्) प्रदान करता है, ( श्रवयन्तः ) अन्न की कामना करते हुए कृषक जन खेत जाते हैं । (असुरस्य) प्राणों के पोषण में रत प्राणी के (भक्षणं चमसम्) खाने योग्य अन्न को खेत में बो बोकर ( एकं सन्तं चतुर्वयम् अकृण्वत ) एक गुना अनाज को चौगुना कर लेते हैं उसी प्रकार ( सविता ) आचार्य ज्ञानों का उत्पादन करने वाला विद्वान् और सबको उत्पन्न करने वाला परमेश्वर ( वः ) आप लोगों को ( तत् ) वह ( अगोह्यं ) कभी न छिपाने योग्य सूर्य के प्रकाश के समान अगोप्य, प्रकट, उज्ज्वल ( अमृतत्वम् ) अमृतस्वरूप, आत्म तत्व और परम ज्ञान ( आसुवत् ) प्रदान करे ( यत् ) जिसको ( छ्रवयन्तः ) स्वयं गुरुमुखों द्वारा श्रवण करने और अन्यों को श्रवण कराने की इच्छा करते हुए (आ एतन) आगे बढ़ो और हम जिज्ञासु गृहस्थों के पास आओ। ( चमसं चित् ) अन्न के समान ग्रहण करने योग्य, पवित्र ( त्यं ) इस ( असुरस्य ) प्राणों में रमण करने वाले, प्राणायाम के अभ्यासी, योगी पुरुष के ( भक्षणम् ) प्राप्त करने या भोगने योग्य जीवनसुख या ज्ञान को ( एक सन्तं ) एक को ( चतुर्वयम् ) चौगुना (आकृणुत) करो । अर्थात् (१) अपने बल को बढ़ाओ, और जीवन की १०० वर्ष की आयु को ४०० वर्षतक की करने का यत्न करो । ( २ ) अथवा ज्ञान को ( एकं सन्तं ) एक ही ( चतुर्वयम् = चतुर्धा व्याप्तम् ) चार प्रकार से करके अध्ययन करो, एक ईश्वरीय ज्ञान वेद को ऋग, यजु, साम, अथर्व रूप से अध्ययन करो । अथवा ( एकं सन्तं चतुर्वयम् ) एक ही जीवन रूप यज्ञ को चार आश्रम भेद से ४ भागों में बाँट दो । अथवा ( एकं सन्तं ) एक ही जीवन को धर्मार्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों से युक्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता । छन्दः- १, ४ जगती । २, ३, ७ विराड् जगती । ६, ८ निचृज्जगती । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो ! जसा मेघ, प्राणपोषक अन्न व जल इत्यादी पदार्थ देतो व सुखी करतो तसेच तुम्ही विद्यादान करून विद्यार्थ्यांना विद्वान बनवून उपकृत करा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Saints and sages, when singing in praise of Divinity you reach the house of Savita, lord of light which can never be concealed, then He creates the nectar of bliss for you. And that one measure of holy food, which is held in the sacrificial ladle as water is held in the cloud or soul in the body, He increases fourfold for the living and breathing souls in existence.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wisemen When a learned man giving you the wealth of wisdom leads you to immortality then revealing the knowledge that can not be concealed, spread it to all. Like the cloud that eats the light of the sun, make the person who is engrossed in the enjoyment of life, follow the fourfold path of Dharma (righteousness and duty) Artha (Wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सविता) ऐश्वर्यप्रदोविद्वान् = A learned man giving wealth of wisdom. (चमसम्) चमन्त्यस्मिन् मेघे (चतुर्वयम् ) चत्वारो धर्मार्थकाममोक्षा वया व्याप्तव्या येन तम् । = He who pervades fourfold path of Dharma, Artha, Kama and Moksha.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned men, as a cloud gladdens all by giving water and nourishing food materials etc. so you should benefit all students by making them truly learned persons.
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