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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 110 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 110/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ म॑नी॒षाम॒न्तरि॑क्षस्य॒ नृभ्य॑: स्रु॒चेव॑ घृ॒तं जु॑हवाम वि॒द्मना॑। त॒र॒णि॒त्वा ये पि॒तुर॑स्य सश्चि॒र ऋ॒भवो॒ वाज॑मरुहन्दि॒वो रज॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मा॒नी॒षाम् । अ॒न्तरि॑क्षस्य । नृऽभ्यः॑ । स्रु॒चाऽइ॑व । घृ॒तम् । जु॒ह॒वा॒म॒ । वि॒द्मना॑ । त॒र॒णि॒ऽत्वा । ये । पि॒तुः । अ॒स्य॒ । स॒श्चि॒रे । ऋ॒भवः॑ । वाज॑म् । अ॒रु॒ह॒न् । दि॒वः । रजः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मनीषामन्तरिक्षस्य नृभ्य: स्रुचेव घृतं जुहवाम विद्मना। तरणित्वा ये पितुरस्य सश्चिर ऋभवो वाजमरुहन्दिवो रज: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। मनीषाम्। अन्तरिक्षस्य। नृऽभ्यः। स्रुचाऽइव। घृतम्। जुहवाम। विद्मना। तरणिऽत्वा। ये। पितुः। अस्य। सश्चिरे। ऋभवः। वाजम्। अरुहन्। दिवः। रजः ॥ १.११०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 110; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्य्यकिरणाः कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    ये ऋभवो तरणित्वा वाजमरुहन् दिवो रजः सश्चिरे, अस्यान्तरिक्षस्य मध्ये वर्त्तमाना नृभ्यः स्रुचेव घृतं पितुरन्नं च सश्चिरे, तेभ्यो वयं विद्माना मनीषामा जुहवाम ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (आ) (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य मध्ये (नृभ्यः) मनुष्येभ्यः (स्रुचेव) यथा होमोपकरणेन तथा (घृतम्) उदकमाज्यं वा (जुहवाम) आदद्याम (विद्मना) वेत्ति येन तेन विज्ञानेन (तरणित्वा) शीघ्रत्वेन (ये) (पितुः) अन्नम् (अस्य) (सश्चिरे) सज्जन्ति प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति वा (ऋभवः) किरणाः। आदित्यरश्मयोऽप्यृभव उच्यन्ते। निरु० ११। १६। (वाजम्) पृथिव्यादिकमन्नम् (अरुहन्) रोहन्ति (दिवः) प्रकाशितस्याकाशस्य मध्ये (रजः) लोकसमूहम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथेम आदित्यरश्मयो लोकलोकान्तरानारुह्य सद्यो जलं वर्षयित्वौषधीरुत्पाद्य सर्वान् प्राणिनः सुखयन्ति तथा राजादयो जनाः प्रजाः सुखयन्तु ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सूर्य्य की किरणें कैसी हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (ये) जो (ऋभवः) सूर्य्य की किरणें (तरणित्वा) शीघ्रता से (वाजम्) पृथिवी आदि अन्न पर (अरुहन्) चढ़तीं और (दिवः) प्रकाशयुक्त आकाश के बीच (रजः) लोकसमूह को (सश्चिरे) प्राप्त होती हैं। और (अस्य) इस (अन्तरिक्षस्य) आकाश के बीच वर्त्तमान हुई (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (स्रुचेव) जैसे होम करने के पात्र से घृत को छोड़ें वैसे (घृतम्) जल तथा (पितुः) अन्न को प्राप्त कराती हैं, उनके सकाश से हम लोग (विद्मना) जिससे विद्वान् सत्-असत् का विचार करता है, उस ज्ञान से (मनीषाम्) विचारवाली बुद्धि को (आ, जुहवाम) ग्रहण करें ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ये सूर्य की किरणें लोक-लोकान्तरों को चढ़कर शीघ्र जल वर्षा और उससे ओषधियों को उत्पन्न कर सब प्राणियों को सुखी करती हैं, वैसे राजादि जन प्रजाओं को सुखी करें ॥ ६ ॥

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    विषय

    मध्यमार्ग व मनीषा की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (इव) = जैसे (स्रुचा) = चम्मच के द्वारा (घृतम्) = घृत को (जुहवाम) = आहुत करते हैं , उसी प्रकार (विद्मना) = ज्ञान के द्वारा (अन्तरिक्षस्य नृभ्यः) = अन्तरिक्ष के इन व्यक्तियों के लिए मध्यमार्ग पर चलनेवाले इन व्यक्तियों के लिए [अन्तराक्षि] , अति को छोड़नेवाले व्यक्तियों के लिए (मनीषाम्) = बुद्धि को (आजुहवाम) = सर्वथा आहुत करते हैं । मनुष्य युक्तचेष्ट हो । कहीं भी अति न करे और इस प्रकार अन्तरिक्ष का व्यक्ति , अर्थात् मध्यमार्ग पर चलनेवाला बना रहे तो उसे स्वाध्याय के द्वारा सूक्ष्म बुद्धि की प्राप्ति होती ही है । 

    २. इस प्रकार सूक्ष्म बुद्धि प्राप्त करके ये (ऋभवः) = खूब देदीप्यमान व्यक्ति (तरणित्वा) = शीघ्रता से अथवा वासनाओं को तैरने के द्वारा (अस्य पितुः) = इस पिता प्रभु की ओर (सश्चिरे) = गमन करते हैं । (ये) = वे (वाजम् अरुहन्) = इस जीवन में शक्ति का आरोहण करते हैं - शक्ति प्राप्त करते हैं और इस शरीर को छोड़ने पर (दिवः रजः) = प्रकाश के लोक का (अरुहन्) = आरोहण करनेवाले होते हैं । द्युलोक प्रकाश का लोक है । यहाँ सूर्यद्वार से होते हुए ये उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति - प्रभु को प्राप्त होते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - मध्यमार्ग में चलते हुए पुरुष की बुद्धि स्वाध्याय के द्वारा सूक्ष्म होती है । उससे हम प्रभु की ओर चलते हैं । इस जीवन में शक्ति को प्राप्त करते हुए शरीर छोड़ने पर हम देदीप्यमान लोक का आरोहण करनेवाले होते हैं । 
     

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    विषय

    पात्र का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( ऋभवः ) खूब प्रकाशमान किरणें जिस प्रकार ( वाजम् ) पृथिवी आदि लोक पर ( अरुहन् ) अन्नों को उत्पन्न करते हैं, वे ( दिवः रजः ) आकाशस्थ लोकों तक भी प्राप्त होते हैं और ( ये ) जो ( तरणित्वा ) अति शीघ्र ही, (अस्य) इस जगत् को (पितुः) अन्न आदि पालक या जीवनप्रद पदार्थ को प्राप्त कराते हैं और जो ( अन्तरिक्षस्य ) अन्तरिक्ष के बीच में स्थित रह कर ( नृभ्यः ) मनुष्यों के हित ( स्रुचा इव ) स्रुच् से जैसे घृत अग्नि पर दिया जाता है उसी प्रकार ( घृतं सश्चिरे ) जल की वर्षा करते हैं हम उन किरणों के ज्ञान के लिये (विद्मना) ज्ञानपूर्वक ( मनीषाम् ) अपनी बुद्धि को ( आ जुहवाम ) लगावें । (२) उसी प्रकार (ऋभवः) सत्य ज्ञान से प्रकाशित विद्वान् जन ( वाजम् अरुहन् ) ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं, वे ( दिवः रजः) सूर्य के समान तेजस्वी लोकों या पदों को ( सश्चिरे ) प्राप्त होते हैं । ( ये तरणित्वा ) जो शीघ्र ही ( अस्य पितुः ) इस प्रजागण को पालनकारी साधन प्राप्त कराते हैं । और ( अन्तरिक्षस्य स्रुचा इव धृतम्) आकाश से बरसते बादल से जल के समान ( स्रुचा घृतम् ) वाणी द्वारा ज्ञान का उपदेश करते हैं उनके अधीन हम ( विद्मना ) ज्ञानपूर्वक ( मनीषाम् ) स्तुति या अपनी पूजा को या बुद्धि को ( आ जुहवाम ) प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता । छन्दः- १, ४ जगती । २, ३, ७ विराड् जगती । ६, ८ निचृज्जगती । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी सूर्याची किरणे लोक लोकांतरी पोचून, जलवृष्टी करून, औषधी उत्पन्न करून सर्व प्राण्यांना सुखी करतात तसे राजा इत्यादींनी प्रजेला सुखी करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For the sake of humanity we dedicate our mind and intelligence and offer it like ghrta in a sacrificial ladle to the Rbhus, inhabitants of the sky, who share its food and energy with their zeal and, with their force and power rise to the regions of heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the rays of the sun is taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    These rays of the sun, which soon reach the earth and corn, which reach various worlds in the sky, being in the firmament, they cause men to attain water or clarified butter, like the ghee with a ladle. From them, with knowledge we take intellect. [By the proper use of the sun, a man becomes healthy and wise.]

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (घृतम्) उदकम् आज्यं वा = Water or Ghee (Clarified butter) (ऋभव:) किरणा: आदित्यरश्मयोऽपि ऋभव: उच्यन्ते (नि० ११.१६) (वाजम् ) पृथिव्यादिकमन्नम् ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the rays of the sun make all people happy by ascending various worlds, raining down water and generating herbs, in the same manner, kings and other officers of the State should make all people delighted by their good conduct and behavior.

    Translator's Notes

    घृतमिति उदकनाम (निघ० १.१२) वाज इति अन्नम (निघ० २.७ )

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