ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 110/ मन्त्र 9
वाजे॑भिर्नो॒ वाज॑सातावविड्ढ्यृभु॒माँ इ॑न्द्र चि॒त्रमा द॑र्षि॒ राध॑:। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठवाजे॑भिः । नः॒ । वाज॑ऽसातौ । अ॒वि॒ड्ढि॒ । ऋ॒भु॒मान् । इ॒न्द्र॒ । चि॒त्रम् । आ । द॒र्षि॒ । राधः॑ । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजेभिर्नो वाजसातावविड्ढ्यृभुमाँ इन्द्र चित्रमा दर्षि राध:। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठवाजेभिः। नः। वाजऽसातौ। अविड्ढि। ऋभुमान्। इन्द्र। चित्रम्। आ। दर्षि। राधः। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.११०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 110; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सेनाध्यक्षः कीदृशः इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे इन्द्र ऋभुमाँस्त्वं नो यद्राधो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्तां तच्चित्रं राधो विड्ढि नोऽस्माँश्च वाजेभिर्वाजसातावादर्षि समन्तादादरयुक्तान् कुरु ॥ ९ ॥
पदार्थः
(वाजेभिः) वाजैरन्नादिसामग्रीभिः सह (नः) (वाजसातौ) संग्रामे (अविड्ढि) व्याप्नुहि। अत्र विष्लृधातोः शपो लुकि लोटि मध्यमैकवचने हेर्धिः ष्टुत्वं जश्त्वं च छन्दस्यपि दृश्यत इत्यडागमः। (ऋभुमान्) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्य सः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त सेनाध्यक्ष (चित्रम्) आश्चर्य्यगुणयुक्तम् (आ) (दर्षि) द्रियस्वादरं कुरु। अत्र दृङ् आदर इत्यस्माल्लोटि मध्यमैकवचने वाच्छन्दसीति तिपः पित्वाद्गुणः। (राधः) धनम्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामिति पूर्ववत् ॥ ९ ॥
भावार्थः
नहि कश्चित्सेनाध्यक्षो बुद्धिमतां सहायेन विना शत्रून् विजेतुं शक्नोतीति ॥ ९ ॥अत्र मेधाविनां कर्मगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकत्रिंशो वर्गो दशोत्तरं शततमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सेनाध्यक्ष कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त सेनाध्यक्ष ! (ऋभुमान्) जिनके प्रशंसित बुद्धिमान् जन विद्यमान हैं वे आप (नः) हमारे लिये जिस (राधः) धन को (मित्रः) सुहृत् जन (वरुणः) श्रेष्ठ गुणयुक्त (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) बढ़ावें (तत्) उस (चित्रम्) अद्भुत धन को (अविड्ढि) व्याप्त हूजिये अर्थात् सब प्रकार समझिये और (नः) हम लोगों को (वाजेभिः) अन्नादि सामग्रियों से (वाजसातौ) संग्राम में (आदर्षि) आदरयुक्त कीजिये ॥ ९ ॥
भावार्थ
कोई सेनाध्यक्ष बुद्धिमानों के सहाय के विना शत्रुओं को जीत नहीं सकता ॥ ९ ॥।इस सूक्त में बुद्धिमानों के काम और गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह ३१ एकतीसवाँ वर्ग और ११० एकसौ दशवाँ सूक्त पूरा हुआ ॥
विषय
शक्ति व ज्ञान द्वारा विजय
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो ! (ऋभुमान्) = ज्ञानदीप्त पुरुषोंवाले आप (नः) = हमें (वाजसातौ) = इस जीवन - संग्राम में (वाजेभिः) = शक्तियों से (अविड्ढि) = व्याप्त कीजिए । आपकी कृपा से ज्ञानदीप्त पुरुषों के साथ हमारा सम्पर्क हो । उनसे ज्ञान प्राप्त करके हम वासनाओं से संघर्ष करने में समर्थ हों । हे प्रभो ! आप यह (चित्रं राधः) = अद्भुत ज्ञानरूप धन (आदर्षि) = [दातुमाद्रियस्व] देने का ध्यान कीजिए [दृ - to care for , to mind , to desire] । आपके अनुग्रह से हम उस ज्ञानधन को प्राप्त करें जिससे कि हम संग्राम में वासनाओं का पराजय करनेवाले हों ।
२. (नः) = हमारे (तत्) = उस ज्ञानप्राप्ति के संकल्प को (मित्रः) = मित्रता का भाव , (वरुणः) = निर्द्वेषता , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) = रेतः कणों के रूप में जल , (पृथिवी) = दृढ़ शरीर (उत) = और (द्यौः) = दीप्त मस्तिष्क (मामहन्ताम्) = आदृत करें , अर्थात् मित्रता , निर्द्वेषता , ऊर्ध्वरेतस्कता , दृढ़शरीर व दीप्स मस्तिष्क हमें ज्ञानप्राप्ति में समर्थ करें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें शक्ति से व्यास करें और ज्ञान दें ताकि हम वासना - संग्राम में विजयी हों ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का प्रारम्भ कर्मशील बनने तथा उपासना व स्तवन करनेवाला बनने से होता है । [१] । समाप्ति पर प्रभु से शक्ति व ज्ञान की प्राप्ति द्वारा विजय की कामना की गई है [९] । अब इस विजय के लिए ही रथादि के सुन्दर निर्माण का कथन है -
विषय
ऋभुओं के बनाए गाय बछड़े का रहस्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! आचार्य ! तू ( ऋभुमान् ) विद्यावान् सत्यज्ञान से प्रकाशित विद्वानों का स्वामी होकर (वाजसातौ ) बल और ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त ( नः ) हमें ( वाजेभिः ) अपने ज्ञानों सहित ( आविढ्ढि ) प्राप्त हो । और (चित्रम् राधः) संग्रह करने योग्य ज्ञान को (आ दर्षि) प्रदान कर । (२) उसी प्रकार ( ऋभुमान् ) तेजस्वी पुरुषों से युक्त राजा सूर्य के समान होकर संग्राम के कार्य में (वाजेभिः) वीर्यवान् पुरुषों, वेगवान् अश्वों से हमें प्राप्त हो । अद्भुत संग्रह योग्य ऐश्वर्य प्रदान करे । ( तन्नो मित्रो० ) इत्यादि पूर्ववत् । इत्येकन्त्रिंशों वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता । छन्दः- १, ४ जगती । २, ३, ७ विराड् जगती । ६, ८ निचृज्जगती । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
कोणताही सेनाध्यक्ष बुद्धिमानाच्या साह्याखेरीज शत्रूंना जिंकू शकत नाही. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and force, empowered with the Rbhus, wondrous force of knowledge and power of science, move into the battle of life for us and win us wealth as well as honour. And, we pray, may Mitra, Varuna, Aditi, rivers and the sea, earth and heaven bless and advance this united effort of knowledge, power and the people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a commander of the army be is taught in the 9th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O most prosperous Commander of the army, you who are a great genius and are associated with such wise men, supply us at the time of war with food-stuffs and wonderful wealth. Make us most respectable like the persons friendly to all, noble men, earth, firmament, river, ocean, and light of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No commander of the army can vanquish his enemies without the help of wise men.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the attributes and actions of wise men as in the previous hymn. Here ends the commentary on the 110th. hymn and 31st Verga of the first Mandala of the Rigveda.
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