ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 110/ मन्त्र 4
वि॒ष्ट्वी शमी॑ तरणि॒त्वेन॑ वा॒घतो॒ मर्ता॑स॒: सन्तो॑ अमृत॒त्वमा॑नशुः। सौ॒ध॒न्व॒ना ऋ॒भव॒: सूर॑चक्षसः संवत्स॒रे सम॑पृच्यन्त धी॒तिभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ष्ट्वी । शमी॑ । त॒र॒णि॒ऽत्वेन॑ । वा॒घतः॑ । मर्ता॑सः । सन्तः॑ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒न॒शुः॒ । सौ॒ध॒न्व॒नाः । ऋ॒भवः॑ । सूर॑ऽचक्षसः । स॒व्ँम्व॒त्स॒रे । सम् । अ॒पृ॒च्य॒न्त॒ । धी॒तिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्ट्वी शमी तरणित्वेन वाघतो मर्तास: सन्तो अमृतत्वमानशुः। सौधन्वना ऋभव: सूरचक्षसः संवत्सरे समपृच्यन्त धीतिभि: ॥
स्वर रहित पद पाठविष्ट्वी। शमी। तरणिऽत्वेन। वाघतः। मर्तासः। सन्तः। अमृतऽत्वम्। आनशुः। सौधन्वनाः। ऋभवः। सूरऽचक्षसः। सम्वत्सरे। सम्। अपृच्यन्त। धीतिऽभिः ॥ १.११०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 110; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
ये सौधन्वनाः सूरचक्षसो वाघतो मर्त्तास ऋभवः संवत्सरे धीतिभिः सततं पुरुषार्थयुक्तैः कर्मभिः कार्यसिद्धिं समपृच्यन्त सम्यक् पृञ्चन्ति ते तरणित्वेन विष्ट्वी शमी कुर्वन्तः सन्तोऽमृतत्वं मोक्षभावमानशुरश्नुवन्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(विष्ट्वी) व्यापनशीलानि (शमी) कर्माणि। विष्ट्वी शमीत्येतद्द्वयं कर्मनाम०। निघं० २। १। (तरणित्वेन) शीघ्रत्वेन (वाघतः) वाग्विद्यायुक्ताः (मर्त्यासः) मरणधर्माणः (सन्तः) (अमृतत्वम्) मोक्षभावम् (आनशुः) अश्नुवन्ति (सौधन्वनाः) शोभनविज्ञानाः (ऋभवः) मेधाविनः (सूरचक्षसः) सूरप्रज्ञानाः (संवत्सरे) वर्षे (सम्) (अपृच्यन्त) पृच्यन्ति (धीतिभिः) कर्मभिः। इमं मन्त्रं निरुक्तकार एवं समाचष्टे−कृत्वा कर्माणि क्षिप्रत्वेन वोढारो मेधाविनो वा, मर्त्तासः सन्तोऽमृतत्वमानशिरे, सौधन्वना ऋभवः सूरख्याना वा सूरप्रज्ञा वा, संवत्सरे समपृच्यन्त धीतिभिः कर्मभिः, ऋभुर्विभ्वा बाज इति। निरु० ११। १६। ॥ ४ ॥
भावार्थः
ये मनुष्याः प्रतिक्षणं सुपुरुषार्थान् कुर्वन्ति ते मोक्षपर्यन्तान् पदार्थान् प्राप्य सुखयन्ति। न खल्वलसा मनुष्याः कदाचित् सुखानि प्राप्तुमर्हन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (सौधन्वनाः) अच्छे ज्ञानवाले (सूरचक्षसः) अर्थात् जिनका प्रबल ज्ञान है (वाघतः) वा वाणी को अच्छे कहने, सुनने (मर्त्तासः) मरने और जीनेहारे (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (संवत्सरे) वर्ष में (धीतिभिः) निरन्तर पुरुषार्थयुक्त कामों से कार्यसिद्धि का (समपृच्यन्त) संबन्ध रखते अर्थात् काम का ढङ्ग रखते हैं वे (तरणित्वेन) शीघ्रता से (विष्ट्वी) व्याप्त होनेवाले (शमी) कामों को करते (सन्तः) हुए (अमृतत्वम्) मोक्षभाव को (आनशुः) प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्रत्येक क्षण अच्छे-अच्छे पुरुषार्थ करते हैं, वे संसार से लेके मोक्षपर्यन्त पदार्थों को होकर सुखी होते हैं, किन्तु आलसी मनुष्य कभी सुखों को नहीं प्राप्त हो सकते ॥ ४ ॥
विषय
प्रभुसम्पर्क का मार्ग
पदार्थ
१. (वाघतः) = [ऋत्विङ्नाम - नि०] ज्ञान का वहन करनेवाले ऋत्विक् लोग (तरणित्वेन) = [तरणिरिति क्षिप्रनाम] शीघ्रता से अथवा आये हुए विघ्नों को तैरने के द्वारा (शमी) = कर्मों में (विष्ट्वी) = व्यापकता से प्रवेश करके [व्याप्य कृत्वा - स०] , अर्थात् सदा कर्मों में व्याप्त रहकर (मर्तासः सन्तः) = मरणधर्मा होते हुए भी (अमृतत्वम्) = अमरता को (आनशुः) = प्राप्त करते हैं । ये रोगाक्रान्त होकर समय से पहले शरीर को छोड़नेवाले नहीं होते । ज्ञानपूर्ण एवं क्रियाशील जीवन इन्हें अमर बनाता है ।
२. (सौधन्वनाः) = उत्तम प्रणवरूप धनुषवाले इस धनुष के द्वारा ही तो शररूप आत्मा को ब्रह्मरूप लक्ष्य में पहुँचाते हैं । (ऋभवः) = [ऋतेन भान्ति] ये सब कार्यों को ऋत से करते हैं । इनके कर्मों में अनृत का प्रवेश नहीं होता । ठीक समय और ठीक स्थान पर ये अपने कार्यों को करते हैं । (सूरचक्षसः) = सूर्य के समान प्रकाशवाले [सूरख्याना वा सूरप्रज्ञा वा] (संवत्सरे) = एक वर्ष की समाप्ति पर (धीतिभिः) = ध्यानों के द्वारा [धीति - Devotion] (सम्पृच्यन्त) = उस प्रभु के साथ सम्पर्क को प्राप्त करते हैं ।
३. ‘सौधन्वनाः’ शब्द उपासना के अर्थ का सूचक है , ‘ऋभव’ कर्मों में श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है और ‘सूरचक्षसः’ ज्ञान की दीप्ति को कह रहा है । एवं हृदय , हाथ व मस्तिष्क तीनों के दृष्टिकोण से उत्तम बने हुए ये लोग कम - से - कम एक वर्ष तक प्रतिदिन निरन्तर ध्यानपरायण होते हैं तो ये प्रभु का साक्षात्कार कर पाते हंर । दीर्घकाल तक , नैरन्तर्येण , आदरपूर्वक सेवित हुआ - हुआ ही ध्यान दृढभूमि होता है । यहाँ संवत्सरे शब्द ठीक एक वर्ष का संकेत न करके उचित समय पर इस अर्थ का वाचक है । गीता में “तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति” । इस श्लोक में ‘कालेन’ शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम कर्मों में लगे रहें । प्रणवरूप धनुष से धनुर्धर बनें । हमारे कार्यों में ऋत हो । हम सूर्य के समान देदीप्यमान ज्ञानवाले हों । नियमपूर्वक ध्यान करते हुए प्रभु - सम्पर्क के अधिकारी बनें ।
विषय
विद्वानों, शिल्पिजनों तथा वीर पुरुषों के कर्तव्य, उत्तम कोटि के मुमुक्ष जनों के लिये उपदेश ।
भावार्थ
( वाघतः ) ज्ञान विज्ञानों से युक्त वाणी को धारण करने वाले, ( मर्तासः ) मरणशील, ( सन्तः ) होकर भी ( ऋभवः ) सत्य ज्ञान से प्रकाशित होने वाले ( सौधन्वनाः ) उत्तम कोटि के ब्रह्मज्ञानी पुरुष ( शमी विष्ट्वी) शान्तिदायक कर्मों का आचरण करके ( अमृतत्वम् ) अमृतस्वरूप मोक्ष को ( आनशुः ) प्राप्त करते हैं। और वे ( सूरचक्षसः ) सूर्य के समान तेजस्वी, दीर्घदर्शी होकर ( संवत्सरे ) वर्ष में सूर्य के समान ही ( धीतिभिः ) ज्ञानों और नाना कार्यों से नाना सुखों को ( सम् अपृच्यन्त ) प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता । छन्दः- १, ४ जगती । २, ३, ७ विराड् जगती । ६, ८ निचृज्जगती । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे प्रत्येक क्षणी चांगला पुुरुषार्थ करतात ती संसारापासून मोक्षापर्यंत पदार्थ प्राप्त करून सुखी होतात; परंतु आळशी माणसे कधी हे सुख प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
People of noble speech and action doing acts of piety with zeal attain freedom from death to immortality of bliss though they are still in the mortal state. Heroes of the mighty bow, commanding wisdom and dexterity, having universal vision as light of the sun attain perfection by virtue of good actions just in one year.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Rebus is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Men full of good knowledge and wisdom, brilliant as the sun, doing noble deeds. being mortals, soon acquire immortality through those benevolent acts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विष्ट्वी) व्यापनशीलानि = Pervasive. (शमी) कर्माणि विष्ट्वीशमीत्येतद्वयं कर्मनाम (निघo २. १) (तरणित्वेन) शीघ्रम् = Soon. (सौधन्वनाः) शोभनविज्ञानाः = Full of good knowledge. (धीतिभिः) कर्मभिः
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who are always engaged in doing noble deeds industriously, enjoy happiness and emancipation, Lazy persons can never enjoy true delight.
Translator's Notes
तरणिरिति क्षिप्रनाम (निघ० २.१८) सौधन्वना : is derived from धाव-गती गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं ज्ञान प्राप्तिश्च Here the first meaning of ज्ञान or knowledge has been taken. It is wrong to take सौधन्वना: as the sons of Sudhanvan as it is against the fundamental principles of the Vedic terminology as pointed out before. Unfortunately Sayanacharya. Prof. Wilson, Griffith and many other translators have committed the same mistake.
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