ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 19
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा॒ता दे॒वाना॒मदि॑ते॒रनी॑कं य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर्बृ॑ह॒ती वि भा॑हि। प्र॒श॒स्ति॒कृद्ब्रह्म॑णे नो॒ व्यु१॒॑च्छा नो॒ जने॑ जनय विश्ववारे ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒ता । दे॒वाना॑म् । अदि॑तेः । अनी॑कम् । य॒ज्ञस्य॑ । के॒तुः । बृ॒ह॒ती । वि । भा॒हि॒ । प्र॒श॒स्ति॒ऽकृत् । ब्रह्म॑णे । नः॒ । वि । उ॒च्छ॒ । नः॒ । जने॑ । ज॒न॒य॒ । वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुर्बृहती वि भाहि। प्रशस्तिकृद्ब्रह्मणे नो व्यु१च्छा नो जने जनय विश्ववारे ॥
स्वर रहित पद पाठमाता। देवानाम्। अदितेः। अनीकम्। यज्ञस्य। केतुः। बृहती। वि। भाहि। प्रशस्तिऽकृत्। ब्रह्मणे। नः। वि। उच्छ। नः। जने। जनय। विश्वऽवारे ॥ १.११३.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 19
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विश्ववारे कुमारि यज्ञस्य केतुरदितेः पालनायानीकमिव प्रशस्तिकृद्बृहती देवानां माता सती ब्रह्मणे त्वमुषर्वद्विभाहि नोऽस्माकं जने प्रीतिमाजनय व्युच्छ च ॥ १९ ॥
पदार्थः
(माता) (देवानाम्) विदुषाम् (अदितेः) जातस्यापत्यस्य अदितिर्जातमिति मन्त्रप्रमाणात्। (अनीकम्) सैन्यवद्रक्षयित्री (यज्ञस्य) विद्वत्सत्कारादेः कर्मणः (केतुः) ज्ञापयित्री पताकेव प्रसिद्धा (बृहती) महासुखवर्द्धिका (वि) विविधतया (भाहि) (प्रशस्तिकृत्) प्रशंसां विधात्री (ब्रह्मणे) परमेश्वराय वेदाय वा (नः) अस्मान् (वि) (उच्छ) सुखे स्थिरीकुरु (आ) (नः) (जने) संबन्धिनि पुरुषे (जनय) (विश्ववारे) या विश्वं सर्वं भद्रं वृणोति तत्संबुद्धौ ॥ १९ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सत्पुरुषेण सत्येव स्त्री विवोढव्या यतः सुसन्ताना ऐश्वर्यं च नित्यं वर्धेत, भार्य्यासंबन्धजन्यदुःखेन तुल्यमिह किञ्चिदपि महत् कष्टं न विद्यते तस्मात् पुरुषेण सुलक्षणया स्त्रिया परीक्षां कृत्वा पाणिग्रहणं स्त्रिया च हृद्यस्य प्रशंसितरूपगुणयुक्तस्य पुरुषस्यैव ग्रहणं कार्य्यम् ॥ १९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (विश्ववारे) समस्त कल्याण को स्वीकार करनेहारी कुमारी ! (यज्ञस्य) गृहाश्रम व्यवहार में विद्वानों के सत्कारादि कर्म की (केतुः) जतानेहारी पताका के समान प्रसिद्ध (अदितेः) उत्पन्न हुए सन्तान की रक्षा के लिये (अनीकम्) सेना के समान (प्रशस्तिकृत्) प्रशंसा करने और (बृहती) अत्यन्त सुख की बढ़ानेहारी (देवानाम्) विद्वानों की (माता) जननी हुई (ब्रह्मणे) वेदविद्या वा परमेश्वर के ज्ञान के लिये प्रभात वेला के समान (विभाहि) विशेष प्रकाशित हो, (नः) हमारे (जने) कुटुम्बी जन में प्रीति को (आ, जनय) अच्छे प्रकार उत्पन्न किया कर और (नः) हमको सुख में (व्युच्छ) स्थिर कर ॥ १९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सत्पुरुष को योग्य है कि उत्तम विदुषी स्त्री के साथ विवाह करे जिससे अच्छे सन्तान हों और ऐश्वर्य नित्य बढ़ा करें क्योंकि स्त्रीसंबन्ध से उत्पन्न हुए दुःखों के तुल्य इस संसार में कुछ भी बड़ा कष्ट नहीं है, उससे पुरुष सुलक्षणा स्त्री की परीक्षा करके पाणिग्रहण करे और स्त्री को भी योग्य है कि अतीव हृदय के प्रिय प्रशंसित रूप गुणवाले पुरुष ही का पाणिग्रहण करे ॥ १९ ॥
विषय
“विश्ववारा” उषा
पदार्थ
१. हे (विश्ववारे) = सबसे वरण करने योग्य उषे ! तू (देवानां माता) = हमारे जीवनों में दिव्य गुणों का निर्माण करनेवाली है । उषा का समय ही पवित्रता का सञ्चार करनेवाला है । ‘प्रातः - प्रातः यह क्या करने लग गये’ - यह वाक्य ही प्रातः समय अशुभ से दूर रहने के भाव को सर्वलोक - विदित रूप में प्रकट कर रहा है । २. (अदितेः अनीकम्) = यह उषा अदिति का मुख है , अदिति , अर्थात् स्वास्थ्य का मुख्य कारण है । इस समय के वायु में ओजोन गैस का प्राचुर्य स्वास्थ्यवृद्धि का हेतु बनता है । ३. (यज्ञस्य केतुः) = यह उषा यज्ञों की प्रकाशिका है । उषाकाल में ही यज्ञशील पुरुषों के यज्ञ चलते हैं । इस प्रकार यह उषा (बृहती) = यज्ञों के द्वारा वृद्धि का कारण बनती है । यज्ञों से ही हम फूलते - फलते हैं - “अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्” । ऐसी हे उषे ! तू (विभाहि) = हमारे लिए विशिष्ट दीप्तिवाली हो । ४. (प्रशस्तिकृत्) = सब अच्छाइयों को जन्म देनेवाली हे उषे ! तू (नः) = हमारे (ब्रह्मणे) = ज्ञान के लिए (व्युच्छ) = अन्धकार को दूर करनेवाली हो और (नः जने) = हमारे लोगों में (जनय) = शक्तियों का प्रादुर्भाव करनेवाली हो । उषा का समय वह समय है जब हम अपने - आपको अधिक - से - अधिक प्रफुल्लित पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा दिव्यगुणों , शक्ति , यज्ञ की भावनाओं और सब अच्छाइयों को हमें देनेवाली होती है । इसलिए यह विश्ववारा है ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
यह उषा ( देवानाम् ) सूर्य की किरणों की ( माता ) प्रथम प्रकट करने वाली है । और वह ( अदितेः ) सूर्य का ( अनीकम् ) मुख है । वह ( यज्ञस्य ) यज्ञ की ( केतुः ) झण्डे के समान ज्ञापन करने वाली है । वह ( ब्रह्मणे ) परमेश्वर की ( प्रशस्ति कृत् ) उत्तम स्तुतियों को प्रकट करती है। वह सबसे वरण करने और सेवन करने योग्य होने से ‘विश्ववारा’ हे । इसी प्रकार हे ( विश्ववारे ) सबसे वरण करने योग्य, श्रेष्ठ या सब उत्तम पदार्थों और सुखों को चाहने वाली स्त्रि ! तू ( देवानाम् माता ) उत्तम विद्वान् तेजस्वी पुत्रों की माता हो । ( अदितेः अनीकम् ) पुत्र की सेना के समान रक्षक और माता और पिता दोनों का मुख अर्थात् दोनों में मुख्य हो । और ( यज्ञस्य ) गृहस्थ रूप यज्ञ की ( केतुः ) चेताने वाली, ( बृहती ) गुणों में विशाल और सुखों की वृद्धि करने हारी होकर ( विभाहि ) प्रकट हो । तू ( ब्रह्मणे ) वेदश विद्वान् तथा परमेश्वर क लिये ( प्रशस्तिकृत् ) उत्तम स्तुति युक्त वचन कहने वाली ( नः व्युच्छ ) हमारे दुःखों को दूर कर और ( नः ) हमें ( जने जनय ) समस्त जनों में प्रसिद्ध या सन्तानयुक्त कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उत्तम पुरुषांनी उत्तम विदुषी स्त्रीबरोबर विवाह करावा ज्यामुळे चांगली संताने व्हावीत व ऐश्वर्य सतत वाढावे. कारण स्त्रीसंबंधी उत्पन्न झालेल्या दुःखापेक्षा या जगात कोणताही मोठा त्रास नाही. त्यासाठी पुुरुषांनी सुलक्षणा स्त्रीची परीक्षा करून पाणिग्रहण करावे व स्त्रीनेही हृदयाला अत्यंत प्रिय वाटेल अशा प्रशंसित रूपगुणयुक्त पुरुषाचे पाणिग्रहण करावे. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Creative power of Divinity, image of Eternity, fire of the cosmic yajna of creation and evolution, shine brilliant over the vast spaces. Light adorable, shine and let us shine for the service of Divinity. Universal giver of bliss, elevate us to the heights where we belong.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O girl-chooser of all that is noble and auspicious, thou who art instructress of the Yajna in the form of the honor shown to enlightened persons and other noble acts, who after marriage art the protector of thy progeny like the army, who singes the glory of God and the Veda, augmenter of great happiness, mother of highly educated truthful progeny, shine forth like the dawn, marry a suitable person whom thou lowest and firmly establish him in happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अदितेः) जातस्य अपत्यस्य "अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् इति मंत्रप्रामाण्यात् । = Of the progeny. (अनीकम्) सैन्यवत् रक्षयित्री = Protector like the army. (केतु:) प्रज्ञापयित्री पताका इव प्रसिद्धा = Famous and instructress like the flag.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A good man should marry only a good girl, so that the marriage may result in good progeny and augmentation of wealth. There is no greater misery in the world than one that is brought about by union with an ignoble wife. Therefore a man should marry after proper test a virtuous and auspicious girl and a girl should marry a lovely husband, endowed with noble virtues and beauty.
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