ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 9
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उषो॒ यद॒ग्निं स॒मिधे॑ च॒कर्थ॒ वि यदाव॒श्चक्ष॑सा॒ सूर्य॑स्य। यन्मानु॑षान्य॒क्ष्यमा॑णाँ॒ अजी॑ग॒स्तद्दे॒वेषु॑ चकृषे भ॒द्रमप्न॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउषः॑ । यत् । अ॒ग्निम् । स॒म्ऽइधे॑ । च॒कर्थ॑ । वि । यत् । आवः॑ । चक्ष॑सा । सूर्य॑स्य । यत् । मानु॑षान् । य॒क्ष्यमा॑णान् । अजी॑ग॒रिति॑ । तत् । दे॒वेषु॑ । च॒कृ॒षे॒ । भ॒द्रम् । अप्नः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषो यदग्निं समिधे चकर्थ वि यदावश्चक्षसा सूर्यस्य। यन्मानुषान्यक्ष्यमाणाँ अजीगस्तद्देवेषु चकृषे भद्रमप्न: ॥
स्वर रहित पद पाठउषः। यत्। अग्निम्। सम्ऽइधे। चकर्थ। वि। यत्। आवः। चक्षसा। सूर्यस्य। यत्। मानुषान्। यक्ष्यमाणान्। अजीगरिति। तत्। देवेषु। चकृषे। भद्रम्। अप्नः ॥ १.११३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे उषर्वद्वर्त्तमाने यद्यात्वं सूर्य्यस्य चक्षसा समिधेऽग्निं चकर्थ, यद्या दुःखानि व्यावः, यद्या यक्ष्यमाणान्मानुषानजीगः प्रीणासि तत् सा त्वं देवेषु पतिषु भद्रमप्नश्चकृषे कुर्याः ॥ ९ ॥
पदार्थः
(उषः) प्रातर्वत् (यत्) या (अग्निम्) विद्युदग्निम् (समिधे) सम्यक्प्रदीपनाय (चकर्थ) करोषि (वि) (यत्) या (आवः) वृणोषि (चक्षसा) प्रकाशेन (सूर्य्यस्य) मार्तण्डस्य (यत्) या (मानुषान्) मनुष्यान् (यक्ष्यमाणान्) यज्ञं निवर्त्स्यतः (अजीगः) प्रसन्नान् करोति (तत्) सा (देवेषु) विद्वत्सु पतिषु पालकेषु सत्सु (चकृषे) कुर्याः (भद्रम्) कल्याणम् (अप्नः) अपत्यम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्य सम्बन्धिन्युषाः सर्वैः प्राणिभिः सङ्गत्य सर्वाञ्जीवान् सुखयति तथा साध्व्यो विदुष्यः स्त्रियः पतीन् प्रीणयन्त्यः सत्यः प्रशस्तान्यपत्यानि जनयितुं शक्नुवन्ति नेतराः कुमार्य्यः ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (उषः) प्रभात वेला के समान वर्त्तमान विदुषि स्त्रि ! (यत्) जो तू (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (चक्षसा) प्रकाश से (समिधे) अच्छे प्रकार प्रकाश के लिये (अग्निम्) विद्युत् अग्नि को प्रदीप्त (चकर्थ) करती है वा (यत्) जो तू दुःखों को (वि, आवः) दूर करती वा (यत्) जो तू (यक्ष्यमाणान्) यज्ञ के करनेवाले (मानुषान्) मनुष्यों को (अजीगः) प्राप्त होकर प्रसन्न करती है (तत्) सो तू (देवेषु) विद्वान् पतियों में वसकर (भद्रम्) कल्याण करनेहारे (अप्नः) सन्तानों को उत्पन्न (चकृषे) किया कर ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य की संबन्धिनी प्रातःकाल की वेला सब प्राणियों के साथ संयुक्त होकर सब जीवों को सुखी करती है, वैसे सज्जन विदुषी स्त्री अपने पतियों को प्रसन्न करती हुईं उत्तम सन्तानों के उत्पन्न करने को समर्थ होती हैं, इतर दुष्ट भार्य्या वैसा काम नहीं कर सकतीं ॥ ९ ॥
विषय
भद्र कर्म
पदार्थ
१. हे (उषः) = उषा देवता ! [क] (यत्) = जो (अग्निम्) = अग्नि को (समिधे) = दीप्त करने के लिए (चकर्थ) = तू करती है , अर्थात् तेरे होने पर अग्निहोत्र की अग्नियों का दीपन होता है और [ख] (यत्) = जो तू (सूर्यस्य) = सूर्य के (चक्षसा) = प्रकाश से (वि आवः) = जगत् को विशेषरूप से प्रकट करती है - अन्धकार से वियुक्त करती है तथा [ग] (यत्) = जो तू (यक्ष्यमाणान्) = जो समीप भविष्य में यज्ञ करेंगे ऐसे (मानुषान्) = मनुष्यों को (अजीगः) = प्रकट करती है , (तत्) = वह तू (देवेषु) = देवों में (भद्रम् अप्नः) = बड़े शुभ कर्म को (चकृषे) = करती है । २. उषा के तीन कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं - सबसे प्रथम , देववृत्तिवाले पुरुष इस उषाकाल में विविध यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं , दूसरा , ये देववृत्ति के पुरुष अपने मस्तिष्क को ज्ञान से उसी प्रकार उज्ज्वल करने का प्रयत्न करते हैं जैसे सूर्य के प्रकाश से द्युलोक चमक उठता है , तीसरा , ये देववृत्ति के पुरुष इस उषाकाल में यज्ञात्मक कर्मों को करने के लिए यत्नशील होते हैं - ये इन कर्मों को ही प्रथम धर्म मानकर चलते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - देववृत्ति के पुरुष उषाकाल में [क] अग्निहोत्र करते हैं , [ख] ज्ञान - सूर्य के उदय के लिए यत्नशील होते हैं , [ग] यज्ञात्मक कर्मों से प्रभु का उपासन करते हैं । देवों के इन त्रिविध भद्र कर्मों को उषा प्रकट करती है ।
विषय
उषा के दृष्टान्त से नववधू, गृहपत्नी, और विदुषी स्त्री के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
( उषः ) हे उषः ! ( या ) जो तू ( समिधे ) अच्छी प्रकार प्रज्वलित करने के लिये (अग्निं) अग्नि अर्थात् सूर्य को (चकर्थ) उत्पन्न करती है और ( सूर्यस्य चक्षसा ) सूर्य के प्रकाश से ( यत् ) जो तू ( वि-आवः ) विविध पदार्थों को प्रकट करती है । ( यत् ) और जो तू ( मानुषान् यक्ष्यमाणान् ) यज्ञ करने वाले मनुष्यों को ( अजीगः ) व्यापती है उनको प्रेरित करती है ( तत् ) वह तू ( देवेषु ) विद्वान् पुरुषों में ( भद्रम् अतः चकृषे ) सुखकारी, उत्तम कार्य करती है। स्त्री के पक्ष में—स्त्री यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करती है, सूर्य के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष के ज्ञान प्रकाश से सब पदार्थों का ज्ञान कराती और ( यक्ष्यमाणान् ) गृहस्थादि यज्ञ के करनेवाले पुरुषों को ( अजीगः ) उबारती है । इन कार्यों से वह ( देवेषु ) विद्वानों के बीच ( भद्रम् अतः ) उत्तम सुखकारी कार्य ही करती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ १-२० उषा देवता । द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि॥ छन्दः– १, ३, ९, १२, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । ७, १८—२० विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ स्वराट् पंक्तिः। ४, ८, १०, ११, १५, १६ भुरिक् पंक्तिः। १३, १४ निचृत्पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्याशी निगडित असलेली प्रातःकालीन उषा सर्व प्राण्यांशी संलग्न होते व सर्व जीवांना सुखी करते. तसे सद्गुणी विदुषी स्त्रिया आपल्या पतींना प्रसन्न करून उत्तम संताने निर्माण करण्यास समर्थ बनतात. इतर दुष्ट स्त्रिया तसे करू शकत नाहीत. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O dawn, what you do for lighting of the fire of yajna early morning, what you do to reveal the beauty of the world with the light of the sun, what you do to awake and inspire the devotees of yajna, all that you do is noble action for the divinities of nature and humanity among the divinities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Dawn-like good lady, you who kindle the electric fire in the light of the sun, who gladden the persons who perform the Yajna (non-violent sacrifice ) who dissipate all miseries or put an end to all sufferings, beget good children, giving happiness to all, serving your husband.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्निम्) विद्युदग्निम् = Fire in the form of electricity. (अजीगः ) प्रसन्नान् करोति = Gladdens. (अप्न:) अपत्यम् = Progeny. (अप्न इत्यपत्यनाम निघ० २.२ ) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the dawn associated with the sun gladdens all beings. being united with them, in the same manner, only the learned, chaste and pious ladies who always keep their husbands satisfied and delighted can beget good children and not wicked or ignoble wives.
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