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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रि॒व॒न्धु॒रेण॑ त्रि॒वृता॒ रथे॑न त्रिच॒क्रेण॑ सु॒वृता या॑तम॒र्वाक्। पिन्व॑तं॒ गा जिन्व॑त॒मर्व॑तो नो व॒र्धय॑तमश्विना वी॒रम॒स्मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रि॒ऽव॒न्धु॒रेण॑ । त्रि॒ऽवृत॑ । रथे॑न । त्रि॒ऽच॒क्रेण॑ । सु॒ऽवृता॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । पिन्व॑तम् । गाः । जिन्व॑तम् । अर्व॑तः । नः॒ । व॒र्धय॑तम् । अ॒श्वि॒ना॒ । वी॒रम् । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिवन्धुरेण त्रिवृता रथेन त्रिचक्रेण सुवृता यातमर्वाक्। पिन्वतं गा जिन्वतमर्वतो नो वर्धयतमश्विना वीरमस्मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽवन्धुरेण। त्रिऽवृत। रथेन। त्रिऽचक्रेण। सुऽवृता। आ। यातम्। अर्वाक्। पिन्वतम्। गाः। जिन्वतम्। अर्वतः। नः। वर्धयतम्। अश्विना। वीरम्। अस्मे इति ॥ १.११८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्यसहायेन स्त्रीपुरुषविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवां त्रिवन्धुरेण त्रिचक्रेण त्रिवृता सुवृता रथेनार्वागायातम्। नो गाः पिन्वतमर्वतो जिन्वतमस्मेऽस्मान्नस्माकं वीरं च वर्धयतम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (त्रिवन्धुरेण) त्रिविधबन्धनयुक्तेन (त्रिवृता) त्र्यावरणेन (रथेन) (त्रिचक्रेण) त्रीणि कलानां चक्राणि यस्मिन् (सुवृता) शोभनैर्मनुष्यैः शृङ्गारैर्वा सह वर्त्तमानेन (आ) (यातम्) प्राप्नुतम् (अर्वाक्) भूमेरधोभागम् (पिन्वतम्) सेवेथाम् (गाः) भूगोलस्था भूमीः (जिन्वतम्) सुखयतम् (अर्वतः) प्राप्तराज्यान् जनानश्वान्वा (नः) अस्माकम् (वर्धयतम्) (अश्विना) (वीरम्) शूरपुरुषम् (अस्मे) अस्मान् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषाः सुसंभारा आप्तसहाया भूत्वा सर्वान् स्त्रीपुरुषान् समृद्धियुक्तान् कृत्वा प्रशंसिताः स्युः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राज्य के सहाय से स्त्री-पुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभासेनाधीशो ! तुम दोनों (त्रिवन्धुरेण) जो तीन प्रकार के बन्धनों से युक्त (त्रिचक्रेण) जिसमें कलों के तीन चक्कर लगे (त्रिवृता) और तीन ओढ़ने के वस्त्रों से युक्त जो (सुवृता) अच्छे-अच्छे मनुष्य शृङ्गारों के साथ वर्त्तमान (रथेन) रथ है उससे (अर्वाक्) भूमि के नीचे (आ, यातम्) आओ, (नः) हम लोगों की (गाः) पृथिवी में जो भूमि हैं उनका (पिन्वतम्) सेवन करो, (अर्वतः) राज्य पाये हुए मनुष्य वा घोड़ों को (जिन्वतम्) जी आओ सुख देओ, (अस्मे) हम लोगों को और हम लोगों के (वीरम्) शूरवीर पुरुष को (वर्द्धयतम्) बढ़ाओ वृद्धि देओ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुष अच्छी सामग्री और उत्तम शास्त्रवेत्ता विद्वानों का सहाय ले सब स्त्री-पुरुषों को समृद्धि और सिद्धियुक्त करके प्रशंसित हों ॥ २ ॥

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    विषय

    ‘त्रिवन्धुर’ रथ

    पदार्थ

    १.हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (रथेन) = इस शरीररथ के द्वारा (अर्वाक् आयातम्) = [अस्मदभिमुखम्] हमारे सामने प्राप्त होओ । उस रथ से जो (त्रिवन्धुरेण) = वात - पित्त - कफ - इन तीन तत्त्वों से बँधा है , (त्रिवृता) = जो मस्तिष्क के द्वारा ज्ञान में , हाथों के द्वारा कर्म में तथा हृदय के द्वारा उपासना में चलता है , (त्रिचक्रेण) = इन्द्रिय , मन व बुद्धिरूप तीन चक्रोंवाला है , (सुवृता) = जो बड़ी सुन्दरता से मार्ग पर आगे और आगे प्रवृत्त होता है । हे प्राणापानो ! आप (गाः पिन्वतम्) = हमारी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान - दुग्ध से आप्यायित करो । (नः) = हमारे (अर्वतः) = कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (जिन्वतम्) = शक्ति से प्रीणित करो और (अस्मे) = हमारे लिए (वीरं वर्धयतम्) = वीरता का वर्धन करनेवाले होओ अथवा हमारे लिए वीर सन्तानों को प्राप्त कराओ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हमारा शरीररूप रथ सुन्दर बने , ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ उत्तम बनें , हमारी सन्तान वीर हो ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्वान् शिल्पी जनो ! आप ( त्रिबन्धुरेण ) तीन प्रकार के बन्धनों से युक्त, ( त्रिवृता ) तीन प्रकार के आवरणों से युक्त, ( त्रिचक्रेण ) तीन कला युक्त चक्रों से युक्त, ( सुवृत्ता ) उत्तम मनुष्यों या गतियों या शृङ्गारों से युक्त, ( रथेन ) रथ से ( अर्वाक आयातम् ) भूमि के ऊपर नीचे, समीप और दूर आया जाया करो । आप दोनों ( नः ) हमारे ( गाः पिन्वतम् ) गौओं या भूमियों को जल से सेचन किया करो । ( अर्वतः जिन्वतम् ) अश्वों की वृद्धि करो। और ( अस्मे वीरम् ) हमारे वीर जनों और पुत्र जन को ( वर्धयतम् ) खूब बढ़ाओ । अध्यात्म में—मस्तक, मेरुदण्ड और मांसपेशियें इन तीन प्रकार के बन्धन होने से या त्रिविध गुणों के बन्धन होने से देह ‘त्रिबन्धुर’ है । आत्मा, मन और प्राण तीन प्रकार के कारक पदार्थों से या आत्मा, मन और इन्द्रिय इन तीन से वह त्रिचक्र है । सुख से पदार्थों को भोगने से ‘सुवृत’ है । प्राण और अपान या माता और पिता जन हमारे वेदवाणियों, भूमियों और ज्ञानेन्द्रियों को तथा कर्मेन्द्रियों, विद्वानों और पशुओं को बढ़ावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी चांगले साहित्य व उत्तम शास्त्रवेत्ते, विद्वान यांच्या साह्याने सर्व स्त्री-पुरुषांना समृद्ध व प्रवीण करून प्रशंसित व्हावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, masters of engineering, let the three- staged, triple—structured, three wheeled, thrice sophisticated chariot come here. Enrich the land, rejuvenate the people and the social order, develop transport and communication, and let the brave of the land flourish.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued regarding the duties of men and women done with the help of the State.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Come down to us with your tri-columned, tri-angular well-constructed vehicle with three mechanical wheels and seating good men. Serve the people of the earth, gladden our rulers or horses and make us and our heroes grow strong.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्रिचक्रेण) त्रीणि कलानां चक्राणि यस्मिन् = With three mechanical wheels. (सुवृता) शोभनैर्मनुष्यै: शृंगारर्वा सहवर्तमानेन = Seating good men or having requisite articles for decoration and beauty. (गाः) भूगोलस्थ भूमी: = Lands or men of the lands. (अर्वत:) प्राप्तराज्यान् अश्वान् वा = Rulers or horses.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the State should make all men and women prosperous, possessing good materials and honest and truthful assistants. Thus they should become praise-worthy.

    Translator's Notes

    In the Shatpath Brahman 3.3.4.7 it is stated पुमांसोऽर्वन्तः || (शतपथ ३. ३. ४. ७ ) so the word अर्वन्तः means heroic men besides horses as it is derived from अर्व-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था:-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च here the second and the third meaning has been taken.

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