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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वमत्र॒येऽव॑नीताय त॒प्तमूर्ज॑मो॒मान॑मश्विनावधत्तम्। यु॒वं कण्वा॒यापि॑रिप्ताय॒ चक्षु॒: प्रत्य॑धत्तं सुष्टु॒तिं जु॑जुषा॒णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । अत्र॑ये । अव॑ऽनीताय । त॒प्तम् । ऊर्ज॑म् । ओ॒मान॑म् । अ॒श्वि॒नौ॒ । अ॒ध॒त्त॒म् । यु॒वम् । कण्वा॑य । अपि॑ऽरिप्ताय । चक्षुः॑ । प्रति॑ । अ॒ध॒त्त॒म् । सु॒ऽष्टु॒तिम् । जु॒जु॒षा॒णा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवमत्रयेऽवनीताय तप्तमूर्जमोमानमश्विनावधत्तम्। युवं कण्वायापिरिप्ताय चक्षु: प्रत्यधत्तं सुष्टुतिं जुजुषाणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। अत्रये। अवऽनीताय। तप्तम्। ऊर्जम्। ओमानम्। अश्विनौ। अधत्तम्। युवम्। कण्वाय। अपिऽरिप्ताय। चक्षुः। प्रति। अधत्तम्। सुऽष्टुतिम्। जुजुषाणा ॥ १.११८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे जुजुषाणाऽश्विनौ युवं युवामवनीतायापिरिप्तायात्रये कण्वाय तप्तमोमानमूर्जमधत्तम्। युवं युवां तस्माच्चक्षुः सुष्टुतिं च प्रत्यधत्तम् ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवां स्त्रीपुरुषौ (अत्रये) अविद्यमानत्रिविधदुःखाय (अवनीताय) अविद्यानामपगमनाय (=अविद्याऽज्ञानापगमनाय) (तप्तम्) तपोजनितम् (उर्जम्) पराक्रमम् (ओमानम्) रक्षणादिसत्कर्मपालकम् (अश्विनौ) (अधत्तम्) दध्यातम् (युवम्) (कण्वाय) मेधाविने (अपिरिप्ताय) सकलविद्योपचयनाय। लिपधातोर्निष्ठा कपिलकादित्वाल्लत्वविकल्पः। (चक्षुः) दर्शकं विज्ञानम् (प्रति) (अधत्तम्) (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (जुजुषाणा) सेवितौ प्रीतौ वा ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    सभासेनाध्यक्षादिभी राजपुरुषैर्धार्मिकाणां वेदादिविद्याप्रचाराय प्रयत्नमानानां विदुषां रक्षां विधाय तेभ्यो विनयं प्राप्य प्रजाः पालनीयाः ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (जुजुषाणा) सेवा वा प्रीति को प्राप्त (अश्विनौ) समस्त गुणों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (अवनीताय) अविद्या अज्ञान के दूर होने (अपिरिप्ताय) और समस्त विद्याओं के बढ़ने के लिये (अत्रये) जिसको तीन प्रकार का दुःख नहीं है, उस (कण्वाय) बुद्धिमान् के लिये (तप्तम्) तपस्या से उत्पन्न हुए (ओमानम्) रक्षा आदि अच्छे कामों की पालना करनेवाले (ऊर्जम्) पराक्रम को (अधत्तम्) धारण करो और (युवम्) तुम दोनों उससे (चक्षुः) सकल व्यवहारों के दिखलानेहारे उत्तम ज्ञान और (सुष्टुतिम्) सुन्दर प्रशंसा को (प्रति, अधत्तम्) प्रतीति के साथ धारण करो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    सभासेनाधीश आदि राजपुरषों को चाहिये कि धर्मात्मा जो कि वेद आदि विद्या के प्रचार के लिये अच्छा यत्न करते हैं, उन विद्वानों की रक्षा का विधान कर उनसे विनय को पाकर प्रजाजनों की पालना करें ॥ ७ ॥

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    विषय

    ज्ञानचक्षु का खुलना

    पदार्थ

    १. हे (अश्विनी) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (अनये) = [अ - त्रि] काम , क्रोध व लोभ से ऊपर उठे हुए (अवनीताय) = [अव - away , नीत] विषयों से दूर ले - जाए गये व्यक्ति के लिए (तप्तम्) = तप से पैदा किये गये , श्रम से उपार्जित [तपो जनितम् - द०] (ओमानम्) = रक्षक (ऊर्जम्) = अन्नरस को (अधत्तम्) = धारण करते हो । प्राणसाधना करनेवाला [क] अत्रि व अवनीत बनता है , [ख] उसमें श्रम से उपार्जित अन्न - सेवन की वृत्ति उत्पन्न होती है , ‘तप्तम्’ , [ग] यह इस बात का ध्यान रखता है कि इसके भोजन में रक्षक - तत्वों की प्रधानता हो [ओमानम्] । २. (युवम्) = आप (कण्वाय) = कण - कण करके ज्ञान का सञ्चय करनेवाले के लिए तथा (अपिरिप्ताय) = [रप् - to praise] प्रभु का शंसन व स्तवन करनेवाले के लिए (सुष्टुतिं जुजुषाणा) = उस स्तोता की उत्तम स्तुति का प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए (चक्षुः) = ज्ञानचक्षु का (प्रत्यधत्तम्) = धारण करते हो । प्राणसाधना से [क] मनुष्य की बुद्धि तीव्र होती है और वह कण कण करके ज्ञान का संग्रह करनेवाला बनता है , [ख] इसका हृदय निर्मल होकर यह प्रभुस्तवन की ओर झुकाववाला होता है , [ग] इसके ज्ञानचक्षु उद्घाटित हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमें श्रमजनित रक्षणात्मक भोजन के ग्रहण की वृत्तिवाला बनाती है और हमारे ज्ञान - चक्षुओं को खोल देती है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना ) हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! हे नायको ! सन्मार्ग पर लेजाने हारो ! आप दोनों ( अवनीताय ) विनय से अपने अधीन सन्मार्ग पर लेजाने योग्य, उपनीत, (अत्रये) माता पिता, भाई तीनों सम्बन्धियों से रहित शिष्य को ( तप्तम् ) तप से प्राप्त होने योग्य ( ओमानम् ) रक्षा, ज्ञान और तेज दायक ( ऊर्जम् ) पराक्रम, वीर्य और ब्रह्मचर्य ( अधत्तम् ) धारण कराओ और ( युवं ) तुम दोनों ( अपिरिप्ताय ) खूब लिप्त, विषय तृष्णा में फंसे हुए ( कण्वाय ) विद्वान् पुरुष को ( सुस्तुतिं जुजुषाणा ) उत्तम स्तुति प्रार्थना को स्वीकार करते हुए ( चक्षुः प्रति अधत्तः ) सन्मार्ग देखने योग्य शास्त्र रूप चक्षु ( प्रति अधत्तम् ) प्रदान करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभासेनाधीश इत्यादी राजपुरुषांनी धर्मात्मा वेदविद्या इत्यादीचा प्रचार करण्याचा प्रयत्न करणाऱ्या विद्वानांच्या रक्षणाची व्यवस्था करून त्यांच्याकडून विनम्रता शिकून प्रजेचे पालन करावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, powers of intelligence and light of knowledge, loved and admired of all, bear and bring seasoned, protective and promotive energy and power of action to the man free from physical, mental and spiritual want for the removal of darkness and ignorance. Bring the vision and wisdom of the world with appreciation and exhortation for the veteran of wisdom for the collection and expansion of knowledge and enlightenment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men and women, you who love and serve all and are loved and served by others, you bestow upon a wise man who has got rid of all three kinds of misery, strength born of tapas (austerity or meditation etc.) that protect good deeds, so that he may dispel the darkness of ignorance and gather all knowledge. You give him the eye of knowledge and true praise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अत्रये) अविद्यमानत्रिविधदुःखाय = For a man who is free from all the three kinds of misery i. e. (1) Individual or physical (2) Social (3) and cosmic known as अध्यात्मिक, अधिभौतिक आधिदैविक दुःख, (कण्वाय) मेधाविने = A wise man or genius. (कण्व इति मेधाविवाम नि० ३.१५) Tr. (चक्षु:) दर्शकं विज्ञानम् = Knowledge which shows the right path. (अपिरिप्ताय) सकलविद्योपचयनाय = For gathering all knowledge. लिप् धातोर्निष्ठा कपिलादित्वात्लत्व विकल्प:

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the President of the Assembly and the commander of the Army to protect those learned and righteous persons who are trying their level best for the propagation of the knowledge of the Vedas etc. and to preserve and guard the people having acquired humility from them.

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