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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ श्ये॒नस्य॒ जव॑सा॒ नूत॑नेना॒स्मे या॑तं नासत्या स॒जोषा॑:। हवे॒ हि वा॑मश्विना रा॒तह॑व्यः शश्वत्त॒माया॑ उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । श्ये॒नस्य॑ । जव॑सा । नूत॑नेन । अ॒स्मे इति॑ । य॒त॒म् । ना॒स॒त्या॒ । स॒जोषाः॑ । हवे॑ । हि । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । रा॒तऽह॑व्यः । श॒श्व॒त्ऽत॒मायाः॑ । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ श्येनस्य जवसा नूतनेनास्मे यातं नासत्या सजोषा:। हवे हि वामश्विना रातहव्यः शश्वत्तमाया उषसो व्युष्टौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। श्येनस्य। जवसा। नूतनेन। अस्मे इति। यातम्। नासत्या। सजोषाः। हवे। हि। वाम्। अश्विना। रातऽहव्यः। शश्वत्ऽतमायाः। उषसः। विऽउष्टौ ॥ १.११८.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नासत्याऽश्विना सजोषा रातहव्योऽहं शश्वत्तमाया उषसो व्युष्टौ यौ वां हवे तौ युवां हि किल श्येनस्य जवसेन नूतनेन रथेनास्मैऽस्मानायातम् ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (आ) (श्येनस्य) (जवसा) वेगेनेव (नूतनेन) नवीनरथेन (अस्मे) अस्मान् (यातम्) उपागतम् (नासत्या) (सजोषाः) समानप्रेमा (हवे) स्तौमि (हि) किल (वाम्) युवाम् (अश्विना) (रातहव्यः) प्रदत्तहविः (शश्वत्तमायाः) अतिशयेनानादिरूपायाः (उषसः) प्रभातवेलायाः (व्युष्टौ) विशेषेण कामयमाने समये ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    स्त्रीपुरुषा रात्रेश्चतुर्थे याम उत्थायावश्यकं कृत्वा जगदीश्वरमुपास्य योगाभ्यासं कृत्वा राजप्रजाकार्य्याण्यनुष्ठातुं प्रवर्त्तेरन्। राजादिभिः प्रशंसनीयाः प्रजाजनाः सत्कर्त्तव्याः प्रजापुरुषैश्च स्तोतुमर्हा राजजनाश्च स्तोतव्याः। नहि केनचिदधर्मसेवी स्तोतुमर्हो धर्मसेवी निन्दितुं वा योग्योऽस्ति तस्मात्सर्वे धर्मव्यवस्थामाचरेयुः ॥ ११ ॥।अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥११८ इत्यष्टादशोत्तरशततमं सूक्तं एकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सत्ययुक्त (अश्विना) समस्त गुणों में रमे हुए स्त्री-पुरुषो वा सभासेनाधीशो ! (सजोषाः) जिसका एक सा प्रेम (रातहव्यः) वा जिसने भली-भाँति होम की (सामग्री) दी वह मैं (शश्वत्तमायाः) अतीव अनादि रूप (उषसः) प्रातःकाल की वेला के (व्युष्टौ) विशेष करके चाहे हुए समय में जिन (वाम्) तुमको (हवे) स्तुति से बुलाऊँ वे तुम (हि) निश्चय के साथ (श्येनस्य) वाज पखेरू के (जवसा) वेग के समान (नूतनेन) नये रथ से (अस्मे) हम लोगों को (आ, यातम्) आ मिलो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष रात्रि के चौथे प्रहर में उठ अपना आवश्यक अर्थात् शरीर शुद्धि आदि काम कर फिर जगदीश्वर की उपासना और योगाभ्यास को करके राजा और प्रजा के कामों का आचरण करने को प्रवृत्त हों। राजा आदि सज्जनों को चाहिये कि प्रशंसा के योग्य प्रजाजनों का सत्कार करें और प्रजाजनों को चाहिये कि स्तुति के योग्य राजजनों की स्तुति करें। क्योंकि किसी को अधर्म सेवनेवाले दुष्ट जन की स्तुति और धर्म का सेवन करनेवाले धर्मात्मा जन की निन्दा करने योग्य नहीं हैं, इससे सब जन धर्म की व्यवस्था का आचरण करें ॥ ११ ॥इस सूक्त में स्त्री-पुरुष और राजा-प्रजा के धर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥यह एकसौ अट्ठारहवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    श्येन का नूतन जवस्

    पदार्थ

    १. हे (नासत्या) = जिनके कारण असत्य रहता ही नहीं ऐसे प्राणापानो ! आप (सजोषाः) = [सजोषसौ , औ - सु] समान रूप से प्रीतिवाले होते हुए (श्येनस्य) = शंसनीय गतिवाले के (नूतनेन) = अत्यन्त स्तुत्य (जवसा) = वेग से (अस्मे) = हमारे लिए (आयातम्) = प्राप्त होओ । प्राणसाधना से हम शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले हों और हमारे कार्य स्तुत्य हों । हमारे जीवनों में असत्य न रह जाए । २. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (रातहव्यः) = हव्य को देनेवाले , अर्थात् यज्ञशील में (शश्वत्तमायाः) = अनादिकाल से गति करती हुई (उषसः) = इस उषा के (व्युष्टौ) = उदित होने पर मैं (हि) = निश्चय से (वाम्) = आप दोनों को (हवे) = पुकारता हूँ , अर्थात् उषा के आने पर जहाँ मैं अग्निहोत्र करता हूँ वहाँ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता हूँ । ये दोनों कार्य मिलकर मेरे जीवन को असत्य से दूर करते हैं । मैं सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से मैं स्फूर्ति प्राप्त करता हूँ और त्याग की वृत्तिवाला बनता हूँ ।

    विशेष / सूचना

    विशेष—इस सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि प्राणसाधना से हमारा शरीर - रथ शंसनीय गतिवाला बनता है [१] । समाप्ति पर भी यही कहते हैं कि यह श्येन - वाज की स्फूर्तिवाला होता है [११] । अगले सूक्त के प्रारम्भ में भी सुन्दर शरीर - रथ के लिए ही प्रार्थना है -

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    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) कभी परस्पर असत्य आचरण न करनेहारे ! ( अश्विना ) विद्वान्, सबल, ऐश्वर्य के भोक्ता स्त्री पुरुषो ! एवं नायक जनो ! ( वाम् ) आप दोनों को मैं ( सजोषाः ) सप्रेम ( रातहव्यः ) अन्न और उत्तम स्वीकार करने योग्य वचनों को प्रदान कर ( शश्वत्तमायाः उषसः ) अनादि काल से चली आनेवाली उषा या प्रभातवेला के ( व्युष्टौ ) खिल जाने पर प्रातः समय ( हवे ) आदर पूर्वक नमस्कार करता हूं । और बुलाता हूं । आप दोनों ( श्येनस्य जवसा ) वाज पक्षी के समान वेग से अन्न और ( अस्मे ) हमारे गृह पर ( नूतनेन ) नये रथ से ( आयातम् ) आइये, पधारिये । विद्वान् स्त्री पुरुषों को इसी प्रकार आदर से निमन्त्रित करना चाहिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषांनी रात्रीच्या चौथ्या प्रहरी उठून आपले आवश्यक कार्य अर्थात शरीर शुद्धी इत्यादी काम करून जगदीश्वराची उपासना व योगाभ्यास करावा. राजा व प्रजेच्या कार्याचे अनुष्ठान करण्यास प्रवृत्त व्हावे. राजाने प्रशंसा योग्य प्रजेचा सत्कार करावा व प्रजेने स्तुती योग्य राजाची स्तुती करावी. कारण अधर्माचे ग्रहण करणाऱ्या दुष्ट लोकांची स्तुती व धर्माचे ग्रहण करणाऱ्या धर्मात्मा लोकांची निंदा करणे योग्य नाही. त्यामुळे सर्वांनी धर्माच्या व्यवस्थेप्रमाणे वर्तन ठेवावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, highpriests of truth and reality, springs and harbingers of nature’s eternal power and energy, come by the speed and force of the eagle new and ever new with constant love. With offering in hand when the dawn is breaking bright, I invoke you both to come and bless.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued in the eleventh and the last Mantra of the hymn.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men and women who are absolutely truthful or in whom there is not the least element of un-truth, I full of love in my heart, invoke you at the rising of the ever constant dawn. Please come to us with your new car in the form of an air-craft which has the speed of a hawk.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men and women should get up early in the morning, should do their daily duties, should practice Yoga and meditate upon God and should begin to discharge the duties of the rulers and the subjects, as the case may be. The King and other officers should honor praiseworthy people among their subjects, and the subjects should praise only admirable officers of the State. It is not proper on the part of anyone to praise an un-righteous person or to censure or condemn a righteous person. therefore all should act according to to the injunctions of Dharma (righteousness).

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of the duties of the husband and wife and king and his subjects in this hymn. Here ends the commentary on the 118th hymn of the first Mandala of the Rigveda Samhita and Twenty-first Verga.

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