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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्वन्द॑नमैरतं दं॒सना॑भि॒रुद्रे॒भं द॑स्रा वृषणा॒ शची॑भिः। निष्टौ॒ग्र्यं पा॑रयथः समु॒द्रात्पुन॒श्च्यवा॑नं चक्रथु॒र्युवा॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । वन्द॑नम् । ऐ॒र॒त॒म् । दं॒सना॑भिः । उत् । रे॒भम् । द॒स्रा॒ । वृ॒ष॒णा॒ । शची॑भिः । निः । तौ॒ग्र्यम् । पा॒र॒य॒थः॒ । स॒मु॒द्रात् । पुन॒रिति॑ । च्यवा॑नम् । च॒क्र॒थुः॒ । युवा॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वन्दनमैरतं दंसनाभिरुद्रेभं दस्रा वृषणा शचीभिः। निष्टौग्र्यं पारयथः समुद्रात्पुनश्च्यवानं चक्रथुर्युवानम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। वन्दनम्। ऐरतम्। दंसनाभिः। उत्। रेभम्। दस्रा। वृषणा। शचीभिः। निः। तौग्र्यम्। पारयथः। समुद्रात्। पुनरिति। च्यवानम्। चक्रथुः। युवानम् ॥ १.११८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे दस्रा वृषणा युवां शचीभिर्दंसनाभिर्यथा तौग्र्यं च्यवानं युवानं समुद्रान्निःपारयथः। पुनरवारं प्राप्तमुच्चक्रथुस्तथैव वन्दनं रेभं चोदैरतम् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (उत्) (वन्दनम्) स्तुत्यं यानम् (ऐरतम्) गच्छतम् (दंसनाभिः) भाषणैः (उत्) (रेभम्) स्तोतारम् (दस्रा) (वृषणा) (शचीभिः) कर्मभिः प्रज्ञाभिर्वा (निः) (तौग्र्यम्) बलवतो हिंसकस्य राज्ञः पुत्रं राजन्यम् (पारयथः) (समुद्रात्) सागरात् (पुनः) (च्यवानम्) गन्तारम् (चक्रथुः) कुरुतः (युवानम्) बलवन्तम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    यथा पोतगमयितारो जनान् समुद्रपारं नीत्वा सुखयन्ति तथा राजसभा शिल्पिनं उपदेशकांश्च दुःखात् पारं प्रापय्य सततमानन्दयेत् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (दस्रा) दुःखों के दूर करने और (वृषणा) सुख वर्षानेवाले सभासेनाधीशो ! तुम दोनों (शचीभिः) कर्म और बुद्धियों वा (दंसनाभिः) वचनों के साथ जैसे (तौग्र्यम्) बलवान् मारनेवाला राजा का पुत्र (च्यवानम्) जो गमनकर्त्ता बली (युवानम्) ज्वान है उसको (समुद्रात्) सागर से (निः, पारयथः) निरन्तर पार पहुँचाते (पुनः) फिर इस ओर आए हुए को (उत्, चक्रथुः) उधर पहुँचाते हो वैसे ही (वन्दनम्) प्रशंसा करने योग्य यान और (रेभम्) प्रशंसा करनेवाले मनुष्य को (उदैरतम्) इधर-उधर पहुँचाओ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    जैसे नाव के चलानेवाले मल्लाह आदि मनुष्यों को समुद्र के पार पहुँचाकर सुखी करते हैं, वैसे राजसभा शिल्पीजनों और उपदेश करनेवालों को दुःख से पार पहुँचाकर निरन्तर आनन्द देवें ॥ ६ ॥

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    विषय

    ‘वन्दन , रेभ , तौग्र्य , च्यवान’

    पदार्थ

    १. हे (दस्रा) = दोषों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! आप (दंसनाभिः) = उत्तम कर्मों के द्वारा (वन्दनम्) = वन्दना करनेवाले को (उदैरतम्) = विषयकूप से ऊपर प्रेरित करते हो , अर्थात् प्राणसाधना करनेवाला माता , पिता , आचार्य व अतिथियों का अभिवादन करता हुआ सदा उनसे प्रदर्शित सन्मार्ग पर चलता है और इस प्रकार विषयकूप में डूबने से बच जाता है । २. हे (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापानो ! आप (शचीभिः) = प्रज्ञानों व शक्तियों के द्वारा (रेभम्) = स्तोता को - प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले को (उत्+ऐरतम्) = संसार - समुद्र से ऊपर उठाते हो । प्रभुस्तवन करता हुआ यह व्यक्ति विषय - समुद्र में नहीं डूबता । प्राण - साधक प्रभु का स्तोता बनता है और प्रभुस्तवन उसे विषय समुद्र में डूबने नहीं देता । ३. हे प्राणापानो ! आप (तौग्र्यम्) = तुग्र - पुत्र भुज्यु को - अपने भोगों के लिए औरों की हिंसा करनेवाले भोग - प्रवण व्यक्ति को [तुज् हिंसायाम्] (समुद्रात्) = विषय - समुद्र से (निः पारयथः) = पार करते हो । आपकी कृपा से यह भोगों से ऊपर उठता है तथा औरों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता । ४. आजतक भोगों में फँसा होने के कारण (च्यवानम्) = क्षीणशक्ति होते हुए इस पुरुष को भोगप्रवणता से ऊपर उठाकर (पुनः) = फिर से (युवानं चक्रथुः) = युवा कर देते हो । प्राणसाधना का ही यह परिणाम होता है कि मनुष्य विषयभोगों से ऊपर उठता है और शक्ति के संयम के कारण सदा युवा बना रहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम बड़ों का वन्दन करें , प्रभु का स्तवन करें । अपने सुख के लिए औरों का हिंसन न करें । शक्ति का सञ्चय करके सदा युवा बने रहें ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वृषणा ) नाना सुख प्रदान करने हारे, एवं निषेक आदि करने हारे माता पिता जनो ! आप लोग ( दंसनाभिः ) उत्तम आचरणों से ( वन्दनम् ) नित्य अभिवादनशील तथा उत्तम स्तुति करने हारे पुत्र या शिष्य को ( उत् ऐरतम् ) ऊपर उठाओ । हे ( दस्त्रा ) अन्धकार और दुर्गुणों को नाश करने हारे आप दोनों ( शचीभिः ) उत्तम वाणियों, शक्तियों और कर्मों द्वारा ( रेभम् ) अध्ययनशील शिष्य को (उत् ऐरतम्) उत्तम पद पर प्राप्त कराओ और ( समुद्रात् ) यात्री को जहाजी जिस प्रकार समुद्र से पार उतार देता है उसी प्रकार ( तौग्र्यंम् ) पालने योग्य पुत्रादि हितकारी पिता आदि को भी ( निः पारयथः ) निर्विघ्न पार करो । और ( युवान ) युवा पुरुष को ( च्यवानं चक्रथुः ) इस लोक से छोड़ कर जाने वाला वृद्ध दीर्घायु करो । अथवा—( च्यवानं युवानं चक्रथुः ) संसार यात्रा करने वाले को बलवान् करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे नाविक माणसांना समुद्र पार पोचवितात व सुखी करतात तसेच राजसभेने कारागिरांचे व उपदेश करणाऱ्यांचे दुःख दूर करून सदैव आनंद द्यावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, generous as rain showers of new life, brave destroyers of evil, with your noble thoughts, words and acts, raise the venerable from adversity, rescue the worshipful from falling to violence, help the brave warrior cross over the sea and redeem the passionate youth from decrepitude to regain his youth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    o destroyers of all miseries, O showerers of happiness, President of the Assembly and Commander of the Army. By your wisdom, deeds and good words, you raise up the son of a mighty king an active Youngman and make him go to the other shore of the sea. (You make proper, arrangements for the safe Voyage). In the same manner, you raise up or get manufactured an admirable steamer or air-craft and make a devotee of God travel safely and comfortably.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (शचीभिः) कर्मभि: प्रज्ञाभिर्वा = By wisdom and deeds. (दंसनाभिः) भाषणै: = By your words or speeches. (तौग्यम् ) बलवतो हिंसकस्य राज्ञः पुत्रं राजन्यम् = The son of a mighty king. (च्यवानम् ) गन्तारम् = Moving swiftly or active.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As sailors take travelers across the sea and gladden them, in the same manner, it is the duty of the Royal council to make artisans and preachers get rid of all trouble and make them happy.

    Translator's Notes

    वन्दनम् is from वदी-स्तुत्य भिवादनयो: दंसना is derived from दसिभाषार्थ: चु. hence the meaning भाषणैः =By speeches. तौग्यूम् is derived form तुजि-हिंसायाम्, रेभम् is from रेभ-शब्दे च्यवनम् is from च्युङ्-गतौ hence the interpretation गन्तारम् It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson and others to take Vandana, Togra Rebha and Chyavana as the names of particular persons instead of taking as denoting certain attributes, as it is opposed to the fundamental principles of the Vedic terminology as pointed out before.

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