ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 4
आ वां॑ श्ये॒नासो॑ अश्विना वहन्तु॒ रथे॑ यु॒क्तास॑ आ॒शव॑: पत॑ङ्गाः। ये अ॒प्तुरो॑ दि॒व्यासो॒ न गृध्रा॑ अ॒भि प्रयो॑ नासत्या॒ वह॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । श्ये॒नासः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । व॒ह॒न्तु॒ । रथे॑ । यु॒क्तासः॑ । आ॒शवः॑ । प॒त॒ङ्गाः । ये । अ॒प्ऽतुरः॑ । दि॒व्यासः॑ । न । गृध्राः॑ । अ॒भि । प्रयः॑ । ना॒स॒त्या॒ । वह॑न्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां श्येनासो अश्विना वहन्तु रथे युक्तास आशव: पतङ्गाः। ये अप्तुरो दिव्यासो न गृध्रा अभि प्रयो नासत्या वहन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वाम्। श्येनासः। अश्विना। वहन्तु। रथे। युक्तासः। आशवः। पतङ्गाः। ये। अप्ऽतुरः। दिव्यासः। न। गृध्राः। अभि। प्रयः। नासत्या। वहन्ति ॥ १.११८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ किं कुर्यातामित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे नासत्याश्विना येऽप्तुरो दिव्यासो गृध्रा नेव प्रयोऽभि वहन्ति ते श्येनासः पतङ्गा आशवो रथे युक्तासः सन्तो वामावहन्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(आ) (वाम्) युवयोः (श्येनासः) श्येन इव गन्तारः (अश्विना) (वहन्तु) प्रापयन्तु (रथे) (युक्तासः) संयोजिताः (आशवः) शीघ्रगामिनोऽश्वा इवाग्न्यादयः। आशुरित्यश्वना०। निघं० १। १४। (पतङ्गाः) सूर्य्य इव देदीप्यमानाः (ये) (अप्तुरः) अप्स्वन्तरिक्षे त्वरन्ति ते (दिव्यासः) दिवि क्रीडायां साधवः (न) इव (गृध्राः) पक्षिणः (अभि) (प्रयः) प्रियमाणं स्थानम् (नासत्या) (वहन्ति) प्रापयन्ति ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे स्त्रीपुरुषा यथाकाशे स्वपक्षाभ्यामुड्डीयमाना गृध्रादयः पक्षिणः सुखेन गच्छन्त्यागच्छन्ति तथैव यूयं सुसाधितैर्विमानादिभिर्यानैरन्तरिक्षे गच्छतागच्छत ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे स्त्री-पुरुष क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नासत्या) सत्य के साथ वर्त्तमान (अश्विना) सब विद्याओं में व्याप्त स्त्री पुरुषो ! (ये) जो (अप्तुरः) अन्तरिक्ष में शीघ्रता करने (दिव्यासः) और अच्छे खेलनेवाले (गृध्राः) गृध्र पखेरुओं के (न) समान (प्रयः) प्रीति किये अर्थात् चाहे हुए स्थान को (अभि, वहन्ति) सब ओर से पहुँचाते हैं वे (श्येनासः) वाज पखेरू के समान चलने (पतङ्गाः) सूर्य के समान निरन्तर प्रकाशमान (आशवः) और शीघ्रतायुक्त घोड़ों के समान अग्नि आदि पदार्थ (रथे) विमानादि रथ में (युक्तासः) युक्त किये हुए (वाम्) तुम दोनों को (आ, वहन्ति) पहुँचाते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे स्त्री-पुरुषो ! जैसे आकाश में अपने पङ्खों से उड़ते हुए गृध्र आदि पखेरू सुख से आते-जाते हैं, वैसे ही तुम अच्छे सिद्ध किये विमान आदि यानों से अन्तरिक्ष में आओ-जाओ ॥ ४ ॥
विषय
कैसे इन्द्रियाश्व ? प्रयस् की ओर
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = सतत कर्मों में व्याप्त होनेवाले (नासत्या) = प्राणापानो ! (वाम्) = आप (रथे युक्तासः) = इस शरीर - रथ में जुते हुए (श्येनासः) = शंसनीय गतिवाले (आशवः) = शीघ्रगामी (पतङ्गाः) = इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमें प्राप्त कराएँ । हमारी इन्द्रियों की सब चेष्टा ऐसी हों जोकि हमारे प्राणापान को बढ़ानेवाली हों । २. हे (नासत्या) = सब असत्यों को हमसे दूर करनेवाले प्राणापानो ! (ये) = जो इन्द्रियाश्व (अप्तुरः) = कर्मों में (त्वरा) = [त्वर] - वाले हैं - कर्मों को शीघ्रता से करनेवाले हैं , अथवा कर्मों के द्वारा अशुभ का हिंसन करनेवाले हैं [तुर्व्] , (दिव्यासः) = प्रकाशमय हैं , (न गृध्राः) = लोभ व लालच से रहित हैं , ऐसे ये इन्द्रियाश्व (प्रयः अभि) = प्रेयस् की ओर , (वहन्ति) = ले - जाते हैं । ‘अप्तुरः’ होते हुए ये प्रयः = अन्न की ओर ले - चलते हैं , अन्न - [food] प्राप्ति में हमें समर्थ करते हैं । ‘दिव्यासः’ दिव्य होते हुए हमें प्रयस् [delight , pleasure] आनन्द प्राप्त कराते हैं तथा ‘न गृध्राः’ होते हुए हमें (प्रयस्) = [Sacrifice] त्याग की ओर ले - जानेवाले होते हैं । यहाँ प्रयस् के तीन अर्थ हैं और उन [अन्न , आनन्द और त्याग] का क्रमशः अप्तुर , दिव्यासः व 'न गृध्राः' इन शब्दों के साथ सम्बन्ध है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारी इन्द्रियों की चेष्टाएँ प्राणापान की शक्ति को बढ़ानेवाली हों । ये इन्द्रियाश्व हमें अन्न , आनन्द व त्याग की ओर ले - चलें ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) विद्वान् शिल्पीजनो ! आप दोनों को ( रथे युक्तासः ) रथ में लगे युए ( याशवः ) अति शीघ्रगामी ( पतङ्गाः ) सूर्य के समान दीप्ति वाले, अति वेग से जाने वाले (श्येनासः) श्येन पक्षी के समान युद्ध भूमि में झपट कर दौड़ने वाले, सरपट घोड़े या विद्युत् आदि यन्त्र ( वहन्तु ) दूर देश में पहुंचावे । ( ये ) जो ( अप्तुरः ) अन्तरिक्षों और जलों में वेग से जाने वाले ( गृध्राः ) गीध के समान लम्बे पक्ष वाले और लम्बी उड़ान लगाने वाले ( प्रयः अभि ) उत्तम गन्तव्य प्राप्ति स्थान या ठिकाने तक (वहन्ति) लेजाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे स्त्री-पुरुषांनो! जसे आकाशात आपल्या पंखाने उडणारे गृध इत्यादी पक्षी सुखाने संचार करतात, तसेच तुम्ही चांगल्या प्रकारे तयार केलेल्या. विमान इत्यादी यानांद्वारे अंतरिक्षात येणे जाणे करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, powers of nature’s divinity and humanity, high-priests of truth and life’s joy, may the eagle-like motive powers fast as sunbeams yoked to your chariot drive you hither, which, shining as light, flying over water and vapour in the sky, carry you to your desired destination like a feathered arrow flying to its target.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they (Ashvins) do is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ever truthful men and women; May the fire, electricity and other things like the speedy horses which go quickly to the firmament, which are like vultures flying through the air, take you to the desired destination. May those divine things which shine like the sun and are quick like the hawks when yoked in the vehicles like the aircraft take you to the place of Yajna or non-violent sacrifice.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(श्येनास:) श्येन इव गन्तारः = Going quickly like the hwaks. (पतंगा:) सूर्य इव देदीप्यमानाः (अप्तुरः ) अप्सु अन्तरिक्षे त्वरन्ति = Those which go to the firmament. (प्रयः) प्रियमाणं स्थानम् = Desired place. Shining like the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile used in the Mantra twice. O men and women As vultures and other birds easily go to the sky with their birds and come back, in the same manner, you should go to the sky with well-manufactured aero-planes and come back comfortably.
Translator's Notes
आपः इति अन्तरिक्षनाम (निघ० १.३) The word पतङ्ग is used for the sun even in the classical Sanskrit. See पतङ्गः पक्षिसूर्यो च (अमर का. ३-२३७४ ) पतङ्गः पक्षिसूर्यो: (मेदिनीकोषे ४२ ) The adjectives and similes श्येनास: आशवः आशवः दिव्यासः, गृध्रा न, make it quite clear that the vehicle referred in the Mantra is not an ordinary chariot, but something like an aircraft which can quickly take men and women to the firmament.
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