ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒नु॒का॒मं त॑र्पयेथा॒मिन्द्रा॑वरुण रा॒य आ। ता वां॒ नेदि॑ष्ठमीमहे॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नु॒ऽका॒मम् । त॒र्प॒ये॒था॒म् । इन्द्रा॑वरुणा । रा॒यः । आ । ता । वा॒म् । नेदि॑ष्ठम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ। ता वां नेदिष्ठमीमहे॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽकामम्। तर्पयेथाम्। इन्द्रावरुणा। रायः। आ। ता। वाम्। नेदिष्ठम्। ईमहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
एवं साधितावेतौ किंहेतुकौ भवत इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
याविमाविन्द्रावरुणावनुकामं रायो धनानि तर्पयेथां तर्पयेते ता तौ वां द्वावेतौ वयं नेदिष्ठमीमहे॥३॥
पदार्थः
(अनुकामम्) कामं काममनु (तर्पयेथाम्) तर्पयेते। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (इन्द्रावरुणा) अग्निजले। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशो वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (रायः) धनानि (आ) समन्तात् (ता) तौ। अत्रापि सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (वाम्) द्वावेतौ। अत्र व्यत्ययः। (नेदिष्ठम्) अतिशयेनान्तिकं समीपस्थम्। अत्र अन्तिकबाढयोर्नेदसाधौ। (अष्टा०५.३.६३) अनेनान्तिकशब्दस्य नेदादेशः। (ईमहे) जानीमः प्राप्नुमः। ईङ् गतौ इत्यस्माद् बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्यनभावः॥३॥
भावार्थः
मनुष्यैरेवं यो मित्रावरुणयोर्गुणान् विदित्वा क्रियायां संयोजितौ बहूनि सुखानि प्रापयतस्तौ युक्त्या कार्य्येषु सम्प्रयोजनीया इति॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
इस प्रकार साधे हुए ये दोनों किस किसके हेतु होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
जो (इन्द्रावरुण) अग्नि और जल (अनुकामम्) हर एक कार्य्य में (रायः) धनों को देकर (तर्प्पयेथाम्) तृप्ति करते हैं, (ता) उन (वाम्) दोनों को हम लोग (नेदिष्ठम्) अच्छी प्रकार अपने निकट जैसे हो, वैसे (ईमहे) प्राप्त करते हैं॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जिस प्रकार अग्नि और जल के गुणों को जानकर क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए ये दोनों बहुत उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त करें, उस युक्ति के साथ कार्य्यों में अच्छी प्रकार इनका प्रयोग करना चाहिये॥३॥
विषय
इस प्रकार साधे हुए ये दोनों किसके हेतु होते हैं, इस विषय का का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥3॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यौ इमौ इन्द्रावरुणौ अनुकामं रायः (धनानि) तर्पयेथां(तर्पयेते) ता (तौ) वां द्वौ एतौ वयं नेदिष्ठम्ईमहे ॥३॥
पदार्थ
(यौ)=जो, (इमौ)=ये दोनों, (इन्द्रावरुणौ) अग्निजले=अग्नि और जल, (अनुकामम्) कामम् काममनु =प्रत्येक कार्य में, (रायः) धनानि=धनों से, तर्पयेथाम्तर्पयेते=तृप्त करते हैं, ता (तौ)=उन, (वाम्)=दोनों को, (द्वौ)=दो, (एतौ)=ये, (वयम्)=हम, (नेदिष्ठम्) अतिशयेनन्तिकं समीपस्थम्=समीपता से, (ईमहे) जानीमः प्राप्नुमः=जानते हैं और प्राप्त करते हैं॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों में ही जो मित्र और वरुण अर्थात् अग्नि और जल के गुणों को जानकर क्रिया में संयोजित करते हैं, उन दोनों बहुत सुखों को प्राप्त करते हुए, युक्ति के साथ कार्य्यों में अच्छी प्रकार प्रयोग करना चाहिये॥३॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- मित्र और वरुण को ऋग्वेद के मन्त्र संख्या 01.02.08 में स्पष्ट क्या गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यौ) जो (इमौ) ये दोनों (इन्द्रावरुणौ) अग्नि, जल में और (अनुकामम्) प्रत्येक कार्य में (रायः) धनों से (तर्पयेथाम्) तृप्त करते हैं। (तौ) उन (वाम्) दोनों को (वयम्) हम (नेदिष्ठम्) समीपता से (ईमहे) जानते हैं और प्राप्त करते हैं॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अनुकामम्) कामं काममनु (तर्पयेथाम्) तर्पयेते। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (इन्द्रावरुणा) अग्निजले। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशो वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (रायः) धनानि (आ) समन्तात् (ता) तौ। अत्रापि सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (वाम्) द्वावेतौ। अत्र व्यत्ययः। (नेदिष्ठम्) अतिशयेनान्तिकं समीपस्थम्। अत्र अन्तिकबाढयोर्नेदसाधौ। (अष्टा०५.३.६३) अनेनान्तिकशब्दस्य नेदादेशः। (ईमहे) जानीमः प्राप्नुमः। ईङ् गतौ इत्यस्माद् बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्यनभावः॥३॥
विषयः- एवं साधितावेतौ किंहेतुकौ भवत इत्युपदिश्यन्ते।
अन्वयः- याविमाविन्द्रावरुणावनुकामं रायो धनानि तर्पयेथां तर्पयेते ता तौ वां द्वावेतौ वयं नेदिष्ठमीमहे ॥महर्षिकृतः ॥3॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरेवं यो मित्रावरुणयोर्गुणान् विदित्वा क्रियायां संयोजितौ बहूनि सुखानि प्रापयतस्तौ युक्त्या कार्य्येषु सम्प्रयोजनीया इति॥३॥
विषय
अनुकाम तर्पण
पदार्थ
१. हे (इन्द्रावरुण) - इन्द्र और वरुण देवो! आप हमें (अनुकामम्) - इच्छा के अनुसार (रायः) - धन से (आतर्पयेथाम्) - सर्वथा तृप्त कीजिये । जितेन्द्रियता व व्रतबन्धन जहाँ हमारी अध्यात्म - उन्नति का कारण बनते हैं वहाँ लौकिक अभ्युदय को भी प्राप्त करानेवाले होते हैं । ये अनुकाम धन का लाभ कराते हैं , अर्थात् आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुपात में ये धन अवश्य देते हैं । जितेन्द्रिय व व्रती पुरुष सांसारिक दृष्टिकोण से भी कभी असफल नहीं होता ।
२. (ता वाम्) - उन आप दोनों को , अर्थात् इन्द्र और वरुण को हम (नेदिष्ठम्) - अत्यन्त समीप (ईमहे) चाहते हैं । जितेन्द्रियता व व्रतों के बन्धन की भावना मुझसे कभी दूर न हो । जितेन्द्रियता मुझे नीरोग और बलवान् बनाएगी और व्रतबन्धन मुझे व्यसनों के बन्धन से मुक्ति दिलाएगा ।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रियता व व्रतबन्धन मुझे इच्छानुसार धन की प्राप्ति करानेवाले होते हैं । ये सदा मेरे समीप हों , मैं जितेन्द्रिय व व्रती बनूँ ।
विषय
पक्षान्तर में अग्नि और जल
भावार्थ
हे ( इन्द्रा-वरुणा ) अग्नि और जल के समान प्रजा की समस्त अभिलाषायों को पूर्ण करनेहारे ! तुम दोनों ( रायः ) ऐश्वर्य के ( अनु-कामं ) प्रत्येक प्रकार की अभिलाषा को ( तर्पयेथाम् ) पूर्ण करो । ( ता वाम् ) उन तुम दोनों को हम लोग ( नेदिष्ठम् ) अपने अति अधिक समीप ( ईमहे ) प्राप्त होकर याचना करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेध्यातिथिः । इन्द्रावरुणौ देवते । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे अग्नी व जलाचे गुण जाणून क्रियेमध्ये संयुक्त केल्यास ते दोन्ही अत्यंत उत्तम सुख देतात, तसे माणसांनी युक्तीने कार्यामध्ये त्यांचा प्रयोग केला पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Both Indra and Varuna, we pray, stay closest with us and bless us with the wealth of life according to our desire, intention and performance.
Subject of the mantra
Accomplished in this way, both of these are cause of whom, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yau)=which, (imau)=these two, (indrāruṇau)=in fire, water, (anukāmam)=and in every deed, (rāyaḥ)=by wealth, (tarpayethām)=satisfy, (tau)=Those, (vām)=to both, (vayam)=we, (nediṣṭham)=in proximity, (īmahe)=know and obtain.
English Translation (K.K.V.)
Which, both of them satisfy with wealth in fire and water and in every work. We know both of them closely and obtain them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Among, those knowing the qualities of both Mitra and Varuna, in other words, fire and water, use both of them well in works, while getting many pleasures. For obtaining immense pleasures, both of them should use properly in works.
TRANSLATOR’S NOTES-
Mitra and Varuna have been explained in mantra No. 01.02.08 of Rigveda.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
When utilized like this, what purpose do they (fire and water) serve is taught in the 3rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
These Indra and Varuna (fire and water) satisfy us with wealth according to our desires. We desire them to be always near us so that we may derive benefit from them properly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(नेदिष्ठम् ) अतिशयेनान्तिके समीपस्थम् । अत्र अन्तिकवाडयोनेंदसाधौ (अष्टाध्यायी ५-३-६३) अनेनान्तिक शब्दस्य नेदादेशः || = Nearest. ( ईमहे ) जानीम: प्राप्तुमः ईङ् गतौ इत्यस्मात् बहुलं छन्दसीतिशपोलुकि श्यनभावः । तदेतत् करणेन किं भवतीत्युपदिश्यते ।।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know the properties of fire and water which when utilized properly lead to much happiness.
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