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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तयो॒रिदव॑सा व॒यं स॒नेम॒ नि च॑ धीमहि। स्यादु॒त प्र॒रेच॑नम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तयोः॑ । इत् । अव॑सा । व॒यम् । स॒नेम॑ । नि । च॒ । धी॒म॒हि॒ । स्यात् । उ॒त । प्र॒ऽरेच॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि। स्यादुत प्ररेचनम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तयोः। इत्। अवसा। वयम्। सनेम। नि। च। धीमहि। स्यात्। उत। प्रऽरेचनम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ताभ्यां मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    वयं ययोर्गुणानामवसैव यानि सुखानि धनानि च सनेम तयोः सकाशात्तानि पुष्कलानि धनानि च निधीमहि तैः कोशान् प्रपूरयेम येभ्योऽस्माकं प्ररेचनमुत स्यात्॥६॥

    पदार्थः

    (तयोः) इन्द्रावरुणयोर्गुणानाम् (इत्) एव (अवसा) विज्ञानेन तदुपकारकरणेन वा (वयम्) विद्वांसो मनुष्याः (सनेम) सुखानि भजेम (नि) नितरां क्रियायोगे (च) समुच्चये (धीमहि) तां धारयेमहि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (स्यात्) भवेत् (उत) उत्प्रेक्षायाम् (प्ररेचनम्) प्रकृष्टतया रेचनं पुष्कलं व्ययार्थम्॥६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरग्न्यादिपदार्थानामुपयोगेन पूर्णानि धनानि सम्पाद्य रक्षित्वा वर्द्धित्वा च तेषां यथायोग्येन व्ययेन राज्यवृद्ध्या सर्वहितमुन्नेयम्॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उन दोनों से मनुष्यों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हम लोग जिन इन्द्र और वरुण के (अवसा) गुणज्ञान वा उनके उपकार करने से (इत्) ही जिन सुख और उत्तम धनों को (सनेम) सेवन करें (तयोः) उनके निमित्त से (च) और उनसे पाये हुए असंख्यात धन को (निधीमहि) स्थापित करें अर्थात् कोश आदि उत्तम स्थानों में भरें, और जिन धनों से हमारा (प्रचेरनम्) अच्छी प्रकार अत्यन्त खरच (उत) भी (स्यात्) सिद्ध हो॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि अग्नि आदि पदार्थों के उपयोग से भरपूर धन को सम्पादन और उसकी रक्षा वा उन्नति करके यथायोग्य खर्च करने से विद्या और राज्य की वृद्धि से सबके हित की उन्नति करनी चाहिये॥६॥

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    विषय

    फिर इन दोनों स्व मनुष्य को क्या-क्या करना चाहिए, इस विषय का इस मन्त्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ओ अयं ययो: गुणानाम्एव  सा इव यानि सुखानि धनानि च सनेम तयोः सकाशात्  तानि पुष्श्कलानि धनानि च निधीमहि तैः कोशान् प्रपूरयेम येभ्यो: अऽस्माकं  प्ररेचनम्उत  स्यात्॥६॥  

    पदार्थ

    (अयम्)=यह,  (ययो:)=जिन दोनों, (गुणानाम्)=गुणों का, (एव)=ही, (सा)=वह ,  (इव)=जैसे, (यानि)=जो,  (सुखानि)=सुखों के, (धनानि)=धनों के,  (च)=और,  (सनेम) सुखानि भजेम=सुखों का सेवन करें, (तयोः)=उनके, (सकाशात्)=पास  से, (तानि)=वे,  (पुष्कलानि)=प्रचुर मात्रा में,  (धनानि)=धन, (च)=भी,  (नि) नितरां क्रियायोगे=पूर्ण रूप से, (धीमहि) तां धारयेमहि= उनको स्थापित  करें अर्थात्कोश में रखें,  (तैः)=वे,  (कोशान्)=कोशों को,  (प्रपूरयेम)=अच्छी तरह से पूर्ण करते हैं,  (येभ्यो:)=जिनके लिए, (अस्माकम्)=हमसे,  (प्ररेचनम्) प्रकृष्टतया  रेचनं पुष्कलं व्ययार्थम्=अच्छी प्रकार से प्रचुर मात्रा में व्यय को घटाना, (उत)=भी, (स्यात्) भवेत्= हो॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के लिये उचित है कि अग्नि आदि पदार्थों के उचित उपयोग से भरपूर धन का सम्पादन करके और उसकी रक्षा वा उन्नति करके बढ़ाना भी चाहिये। यथायोग्य खर्च करके राज्य की वृद्धि के लिये सबके हित में उन्नति करनी चाहिये॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अयम्) यह,  (ययो:) जिन (गुणानाम्) दोनों  गुणों का (एव)   ही (इव) जैसे, (यानि) जो (सुखानि) सुखों (च) और (धनानि)  धनों का  (सनेम) सेवन करें। (तयोः) उनके (सकाशात्)  पास  से वे (पुष्कलानि) प्रचुर मात्रा में  धन भी  पूर्ण रूप से उनको स्थापित  करें अर्थात्कोश में रखें। (तैः) वे (कोशान्) कोशों को (प्रपूरयेम) अच्छी तरह से पूर्ण करते हैं। (येभ्यो:) जिनके लिए (अस्माकम्)  हमसे (प्ररेचनम्)  अच्छी प्रकार से प्रचुर मात्रा में व्यय को घटाना (उत) भी (स्यात्) कदाचित् हो ॥६॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तयोः) इन्द्रावरुणयोर्गुणानाम् (इत्) एव (अवसा) विज्ञानेन तदुपकारकरणेन वा (वयम्) विद्वांसो मनुष्याः (सनेम) सुखानि भजेम (नि) नितरां क्रियायोगे (च) समुच्चये (धीमहि) तां धारयेमहि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (स्यात्) भवेत् (उत) उत्प्रेक्षायाम् (प्ररेचनम्) प्रकृष्टतया रेचनं पुष्कलं व्ययार्थम्॥६॥
    विषयः- पुनस्ताभ्तां मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- अयं ययोर्गुणानामवसैव यानि सुखानि धनानि च सनेम तयोः सकाशात्तानि पुष्श्कलानि धनानि च निधीमहि तैः कोशान्प्रपूरयेम येभ्यो ऽस्माकम्ं  प्ररेचनमुत स्यात्॥महर्षिकृतः॥६॥     

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरग्न्यादिपदार्थानामुपयोगेन पूर्णानि धनानि सम्पाद्य रक्षित्वा वर्द्धित्वा च तेषां यथायोग्येन व्ययेन राज्यवृद्ध्या सर्वहितमुन्नेयम्॥६॥ 

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    विषय

    धन की प्राप्ति - वर्धन - दान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित इन्द्र और वरुण को ही सम्बोधित करके कहते हैं कि (तयोः) - उन इन्द्र और वरुण के (इत्) - ही (अवसा) - रक्षण से (वयम्) - हम (सनेम) - उत्तम ऐश्वर्यों का सम्भजन करनेवाले हों , अर्थात् जितेन्द्रिय व व्रती बनकर हम इस प्रकार पुरुषार्थ करें कि हम धनों को प्राप्त करनेवाले हों । ये धन हमारे दैनन्दिन व्ययों की पूर्ति के लिए तो पर्याप्त हों ही । 

    २. (च) - और हम आकस्मिक व्ययों के लिए (निधीमहि) - इन धनों को सुरक्षित भी रख सकें । हमारी निधि खाली न होकर धन से परिपूर्ण हो । 

    ३. (उत) - और (प्ररेचनम् स्यात्) - इन धनों का प्ररेचन भी होता रहे , अर्थात् ये धन हमारी निधि में ही स्थिर होकर न रह जाएँ , हम इन्हें दान में भी देते रहें । समय - समय पर यज्ञों , लोकहित के कायों के द्वारा इनका व्यय होता ही रहे और इस प्रकार कोश समसमयय - समय पर शुद्ध होता रहे । 

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रिय व व्रती बनकर हम धनों को प्राप्त करें , जोड़ें और दान में दें । अप्राप्त की प्राप्ति ही प्रथम पुरुषार्थ है , प्राप्त का रक्षण व वर्धन द्वितीय व तृतीय पुरुषार्थ हैं 

    और वृद्धि [बढ़े हुए] का दान - यही चौथा पुरुषार्थ है । 

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्नि और जल

    भावार्थ

    ( तयोः इत् ) उन दोनों के ही (अवसा) ज्ञान, रक्षण और तेजः सामर्थ्य से ( वयम् ) हम सब लोग (सनेम) समस्त सुखों का भोग करें । ( नि धीमहि च ) धन को कोष में संचय करें ( उत ) और हमारे पर ( प्र-रेचनं स्यात् ) बहुत अधिक ऐश्वर्य अपार धन हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेध्यातिथिः । इन्द्रावरुणौ देवते । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या उपयोगाने पूर्ण धन प्राप्त करून त्याचे रक्षण व वाढ करून यथायोग्य खर्च केल्यास विद्या व राज्य यांची वृद्धी होऊन सर्वांचे हित होते. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    By the gifts and protection of these two, Indra and Varuna, may we succeed and prosper with treasures of wealth and fulfilment, and may we ever enjoy an economy of abundance and excellence.

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    Subject of the mantra

    Then, what should be done by those two men, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ayam)=This, (yayo:)=of which two, (guṇānām)=of virtues, (eva)=only, (sā)=that, (iva)=as, (yāni)=which, (sukhāni)=happiness, (dhanāni)=wealth, (ca)=and, (sanema)=enjoy, (tayoḥ)=their, (sakāśāt)= closely, (puṣkalāni)=stablish abundant amount of money completely, that is, keep it in the treasury, (taiḥ)=they, (kośān)= the treasures, (prapūrayema)=complete well. (yebhyo:)=for whom, (asmākam)=from us, (prarecanam)=reduce the abundant expenditure well, (uta)=also, (syāt)=probably be.

    English Translation (K.K.V.)

    Like those two virtues, this one who enjoys the pleasures and wealth. They should also establish closely abundant wealth from them, that is, keep them in the treasury. They complete well the treasures. Probably for whom we may well deduct the abundant expenditure.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is appropriate for human beings that by proper use of substances like fire etc., rich wealth should also be increased by accomplishing and protecting or developing it. For the growth of the state by spending appropriately, progress should be made in the interest of all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What other things should be done with them (Indra and Varuna) is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Through the knowledge of Indra and Varuna as explained above, may we gain great store of wealth and enjoy much happiness, and heap up that wealth, enough still to spare be ours for proper utilization.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अवसा) विज्ञानेन तदुपकारकरणेन वा = By the knowledge and utilization- (सनेम) सुखानि भजेम = Enjoy happiness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should acquire much wealth by the proper use of fire, water, air, electricity etc. and by saving and increasing it, should spend it properly to bring about the welfare of all in the State.

    Translator's Notes

    Among the various meanings of the root अव the meaning of अवगम or knowledge has been taken here by the revered commentator. (सनेम)-षण-सम्भक्तौ = We enjoy

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