ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यु॒वाकु॒ हि शची॑नां यु॒वाकु॑ सुमती॒नाम्। भू॒याम॑ वाज॒दाव्ना॑म्॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वाकु॑ । हि । शची॑नाम् । यु॒वाकु॑ । सु॒ऽम॒ती॒नाम् । भू॒याम॑ । वा॒ज॒दाव्ना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम्। भूयाम वाजदाव्नाम्॥
स्वर रहित पद पाठयुवाकु। हि। शचीनाम्। युवाकु। सुऽमतीनाम्। भूयाम। वाजदाव्नाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तदेतत्करणेन किं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
वयं हि शचीनां युवाकु वाजदाव्नां सुमतीनां युवाकु भूयाम समर्था भवेमात एतौ साधयेम॥४॥
पदार्थः
(युवाकु) मिश्रीभावम्। अत्र बाहुलकादौणादिकः काकुः प्रत्ययः। (हि) यतः (शचीनाम्) वाणीनां सत्कर्मणां वा। शचीति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १.११) कर्मनामसु च। (निघं०२.१) (युवाकु) पृथग्भावम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक। (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्येषां तेषां विदुषाम्। (भूयाम) समर्था भवेम। शकि लिङ् च। (अष्टा०३.३.१७२) इति लिङ्, बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (वाजदाव्नाम्) वाजस्य विज्ञानस्यान्नस्य दातॄणामुपदेशकानां वा॥४॥
भावार्थः
मनुष्यैः सदाऽऽलस्यं त्यक्त्वा सत्कर्माणि सेवित्वा विद्वत्समागमो नित्यं कर्त्तव्यः। यतोऽविद्यादारिद्र्ये मूलतो नष्टे भवेताम्॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
उक्त कार्य्य के करने से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हम लोग (हि) जिस कारण (शचीनाम्) उत्तम वाणी वा श्रेष्ठ कर्मों के (युवाकु) मेल तथा (वाजदाव्नाम्) विद्या वा अन्न के उपदेश करने वा देने और (सुमतीनाम्) श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानों के (युवाकु) पृथग्भाव करने को (भूयाम) समर्थ होवें, इस कारण से इनको साधें॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों को सदा आलस्य छोड़कर अच्छे कामों का सेवन तथा विद्वानों का समागम नित्य करना चाहिये, जिससे अविद्या और दरिद्रपन जड़-मूल से नष्ट हों॥४॥
विषय
उक्त कार्य के करने से क्या होता है, इस विषय का इस मन्त्र में उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
वयं हि शचीनाम्युवाकु वाजदाव्नां सुमतीनां युवाकु भूयाम्समर्था भवेम अतः एतौ साधयेम ॥४॥
पदार्थ
(वयम्)=हम, (हि)=यतः=इसलिये, (शचीनाम्) वाणीनां सत्कर्मणा वा=वाणियों या सत्कर्मों से, (युवाकु) मिश्रीभावम्=मिश्रित भाव से, (वाजदाव्नाम्) वाजस्य विज्ञानस्यान्नस्य दातृणामुपदेशकानां वा=विद्या का या अन्न का उपदेश करने वा देने वाले, (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्येषां तेषां विदुषाम्=श्रेष्ठ बुद्धि वाले विद्वानों के, (युवाकु) पृथग्भावम्= पृथग्भाव करने को, (भूयाम्) समर्था भवेम=समर्थ होवे, (अतः)=इसलिये, (एतौ)=इन दोनों को, (साधयेम)=साधें॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को सदा आलस्य छोड़कर अच्छे कामों का सेवन तथा विद्वानों का समागम नित्य करना चाहिये। जिससे अविद्या और दरिद्रपन जड़-मूल से नष्ट हों॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(वयम्) हम (हि) इसलिये (शचीनाम्) वाणियों या सत्कर्मों के (युवाकु) मिश्रित भाव से (वाजदाव्नाम्) विद्या या अन्न का उपदेश करने वा देने वाले (सुमतीनाम्) श्रेष्ठ बुद्धि वाले विद्वानों के (युवाकु) पृथग्भाव अर्थात् स्पष्टता करने में (भूयाम्) समर्थ होवें (अतः) इसलिये (एतौ) इन दोनों को (साधयेम) साधें॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युवाकु) मिश्रीभावम्। अत्र बाहुलकादौणादिकः काकुः प्रत्ययः। (हि) यतः (शचीनाम्) वाणीनां सत्कर्मणां वा। शचीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं० १.११) कर्मनामसु च। (निघं०२.१) (युवाकु) पृथग्भावम्। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक। (सुमतीनाम्) शोभना मतिर्येषां तेषां विदुषाम्। (भूयाम) समर्था भवेम। शकि लिङ् च। (अष्टा०३.३.१७२) इति लिङ्, बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (वाजदाव्नाम्) वाजस्य विज्ञानस्यान्नस्य दातॄणामुपदेशकानां वा॥४॥
विषयः- तदेतत्करणेन किं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- वयं हि शचीनां युवाकु वाजदाव्नां सुमतीनां युवाकु भूयाम्समर्था भवेमात: एतौ साधयेम ॥महर्षिकृतः॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सदाऽऽलस्यं त्यक्त्वा सत्कर्माणि सेवित्वा विद्वत्समागमो नित्यं कर्त्तव्यः। यतोऽविद्यादारिद्र्ये मूलतो नष्टे भवेताम्॥४॥
विषय
शची सुमति
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब जितेन्द्रियता व व्रतबन्धन हमारे समीप होते हैं तब हम (हि) - निश्चय से (शचीनाम्) - शक्तियों का (युवाकु) - अपने साथ मिश्रण करनेवाले होते हैं । 'यु' धातु से आकु प्रत्यय 'अत्यधिकता' , अर्थ में आया है , जैसे हिन्दी में 'लड़ाकू' - खूब लड़नेवाला , वैसे युवाकु खुब मिश्रित करनेवाला । हम जितेन्द्रिय बनते हैं तो शक्ति का अपने साथ खूब ही सम्पर्क करनेवाले होते हैं ।
२. इसी प्रकार हम (सुमतीनाम्) - उत्तम मतियों , बुद्धियों का युवाकु अपने साथ सम्पर्क करनेवाले हों । व्रतों का बन्धन हमारे जीवन को पवित्र बनाकर हमें निर्मल बुद्धिवाला बनाता है ।
३. शक्ति व सुमति को प्राप्त करके हम (वाजदाव्नाम्) - अन्न के देनेवालों में (भूयाम) - हों । निर्बल व्यक्ति में दान की वृत्ति नहीं होती तथा सशक्त होने पर भी यदि विचारशक्ति ठीक न हो तो मनुष्य देनेवाला नहीं होता । दान तभी होता है जब 'शक्ति व सुमति' हो । अन्न का देनेवाला व्यक्ति भोगवृत्तिवाला नहीं बनता , परिणामतः उसकी शक्ति भी सुरक्षित रहती है और मति भी विकृत नहीं होती ।
भावार्थ
भावार्थ - हम जितेन्द्रिय व व्रती बनकर शक्ति व सुमति को प्राप्त करें तथा दानशील बनें ।
विषय
पक्षान्तर में अग्नि और जल
भावार्थ
हम लोग ( शचीनां ) उत्तम बुद्धियों, शक्तियों और वेदवाणियों के ( युवाकु ) साथ अपने को मिलायें रक्खें । और ( सुमतीनाम् ) उत्तम मनन करने वाली बुद्धियों वाले विद्वानों के साथ ( युवाकु ) हम सत्संग करें । और ( वाज-दाव्नाम् ) अन्न और ऐश्वर्य देनेवाले पुरुषों के बीच में हम ( भूयाम ) सदा रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेध्यातिथिः । इन्द्रावरुणौ देवते । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी आळस सोडून सत्कर्माचे सेवन करावे व विद्वानांची संगती सदैव करावी. ज्यामुळे अविद्या व दारिद्र्य मुळापासून नष्ट व्हावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
And it is our prayer and earnest desire that we be ever close and abide by the words of the sages, advice of the wise and gifts of the generous.
Subject of the mantra
What happens by doing this work, has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(vayam)=we, (hi)=so, (śacīnām)=by speech or good deeds, (yuvāku)= distinctness, in other words clarifying, =preaching sermon of knowledge or food grain, (sumatīnām)=of those having excellent wisdom or of scholars, (yuvāku)=doing separate feelings, (vājadāvnām)= preaching sermon of knowledge or food grain, (bhūyām)=be competent, (ataḥ)=so, (etau)=to these, (sādhayema)=practice.
English Translation (K.K.V.)
So, we should be able by speech or good deeds with distinctness, in other words clarifying by preaching sermons of knowledge or food grain and of those having separate feelings of excellent wisdom of scholars. So, practice these good deeds et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
People should always leave laziness and practice good deeds and meet scholars regularly, by which ignorance and poverty are destroyed from the origin, that is, completely.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the result of doing so is taught in the 4th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May we be sharers of the noble speech and actions of wise persons, sharers of the benevolence of you (preachers) who give knowledge, strength and food bounteously. Let us therefore utilize them (fire and water ) properly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(युवाकु) मिश्रीभावम् अत्र बाहुलकादौणादिकः काकुः प्रत्ययः ।। (शचीनाम्) वाणीनां सत्कर्मणां वा शचीति बाङ्नामसु पठितम् ।। ( निघ० १.११) कर्मनामसु च ( निघ० २.१ ) ( वाज दाव्नाम् ) विज्ञानस्यान्नस्य दातृणामुपदेशकानां वा । = Of the givers of knowledge or food of preachers.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should give up laziness, perform good deeds, and have association with learned persons, so that ignorance and poverty may be rooted out.
Translator's Notes
The word युवाकु is derived from the root यु-मिश्रणा मिश्रणयोः Here it is taken in the first sense of mixing or sharing. The word is derived from वज-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थां: ज्ञानं गुमनं प्राप्तिश्च So the meaning of knowledge has been taken by Rishi Dayananda in his commentary. In the Vedic Lexicon-Nighanta two more meanings of the word वाज are given as वाज इति (अन्ननाम निघ० २. ७ ) = Food. वाज इति बलनाम ( निघ० १.९) = Strength. Hence we have pointed out these two meanings besides knowledge.
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