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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रः॑ सहस्र॒दाव्नां॒ वरु॑णः॒ शंस्या॑नाम्। क्रतु॑र्भवत्यु॒क्थ्यः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । स॒ह॒स्र॒ऽदाव्ना॑म् । वरु॑णः । शंस्या॑नाम् । क्रतुः॑ । भ॒व॒ति॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम्। क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। सहस्रऽदाव्नाम्। वरुणः। शंस्यानाम्। क्रतुः। भवति। उक्थ्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कथंभूताविन्द्रावरुणावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    मनुष्यैर्य इन्द्रो हि सहस्रदाव्नां मध्ये क्रतुर्भवति वरुणश्च शंस्यानां मध्ये क्रतुर्भवति तस्मादयमुक्थ्योऽस्तीति बोध्यम्॥५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) अग्निर्विद्युत् सूर्य्यो वा (सहस्रदाव्नाम्) यः सहस्रस्यासंख्यातस्य धनस्य दातॄणां मध्ये साधकतमः। अत्र आतो मनिन्० (अष्टा०३.२.७४) अनेन वनिप्प्रत्ययः। (वरुणः) जलं वायुश्चन्द्रो वा (शंस्यानाम्) प्रशंसितुमर्हाणां पदार्थानां मध्ये स्तोतुमर्हः (क्रतुः) करोति कार्य्याणि येन सः। कृञः कतुः। (उणा०१.७७) अनेन ‘कृञ’धातोः कतुः प्रत्ययः। (भवति) वर्त्तते (उक्थ्यः) यानि विद्यासिद्ध्यर्थे वक्तुं वाचयितुं वार्हाणि ते साधुः॥५॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद्धेरनुवृत्तिः। यतो यावन्ति पृथिव्यादीन्यन्नादिदानसाधननिमित्तानि सन्ति, तेषां मध्येऽग्निविद्युत्सूर्य्या मुख्या वर्त्तन्ते, ये चैतेषां मध्ये जलवायुचन्द्रास्तत्तद्गुणैः प्रशस्या ज्ञातव्याः सन्तीति विदित्वा कर्मसु सम्प्रयोजिताः सन्तः क्रियासिद्धिहेतवो भवन्तीति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इन्द्र और वरुण किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    सब मनुष्यों को योग्य है कि जो (इन्द्र) अग्नि बिजुली और सूर्य्य (हि) जिस कारण (सहस्रदाव्नाम्) असंख्यात धन के देनेवालों के मध्य में (क्रतुः) उत्तमता से कार्य्यों को सिद्ध करनेवाले (भवति) होते हैं, तथा जो (वरुणः) जल, पवन और चन्द्रमा भी (शंस्यानाम्) प्रशंसनीय पदार्थों में उत्तमता से कार्य्यों के साधक हैं, इससे जानना चाहिये कि उक्त बिजुली आदि पदार्थ (उक्थ्यः) साधुता के साथ विद्या की सिद्धि करने में उत्तम हैं॥५॥

    भावार्थ

    पहिले मन्त्र से इस मन्त्र में हि इस पद की अनुवृत्ति है। जितने पृथिवी आदि वा अन्न आदि पदार्थ दान आदि के साधक हैं, उनमें अग्नि विद्युत् और सूर्य्य मुख्य हैं, इससे सबको चाहिये कि उनके गुणों का उपदेश करके उनकी स्तुति वा उनका उपदेश सुनें और करें, क्योंकि जो पृथिवी आदि पदार्थों में जल वायु और चन्द्रमा अपने-अपने गुणों के साथ प्रशंसा करने और जानने योग्य हैं, वे क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए उन क्रियाओं की सिद्धि करानेवाले होते हैं॥५॥

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    विषय

    फिर इन्द्र और वरुण किस प्रकार के हैं, इस विषय का इस मन्त्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्यै: य: इन्द्र:  हि सहस्रदाव्नाम् मध्ये क्रतु: भवति वरुण: च  शंस्यानांमध्ये क्रतु: भवति तस्मात्  अयम्उक्थ्यः अस्ति इति बोध्यम्॥५॥     

    पदार्थ

    (मनुष्यै:)=मनुष्यों के द्वारा, (य:)=जो, (इन्द्र:) अग्निर्विद्युत् सूर्य्यो वा =अग्नि, बिजली या सूर्य्य, (हि)=जिस कारण से ,  (सहस्रदाव्नाम्) यः सहस्रस्यासंख्या तस्य  धनस्य दातृणाम् मध्ये साधकतमः= असंख्यात धन के देने वालों के मध्य में, (क्रतु:) करोति कार्य्याणियेन स:=कार्य को सिद्ध करने वाला, (भवति)=होता है, (वरुण:) जलंवायुश्चन्द्रो  वा=जल और वायु या चन्द्रमा, (च)=और,  (शंस्यानाम्) प्रशिंसितुमर्हाणां पदार्थानां मध्ये स्तोतुमर्ह:=प्रशंसनीय और आदरणीय पदार्थों  में स्तुति किए जाने योग्य,  (क्रतु:) करोति कार्य्यणियेन स:=कार्य को सिद्ध करने वाला (भवति)=होता है, (तस्मात्)=इसलिए,  (अयम्)=यह, (उक्थ्यः) यानि विद्यासिद्ध्यर्थे  वक्तुं  वाचयितुं वार्हाणि ते साधुः=जो विद्या की सिद्धि के लिए  बोलने में  या पूजा के योग्य है वह पुण्य आत्मा,  (अस्ति)=है,  (इति)=ऐसा,  (बोध्यम्)=जानना  चाहिए॥५॥  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    पहले मन्त्र से इस मन्त्र में 'हि' इस पद की अनुवृत्ति है। जितने पृथिवी आदि और अन्न आदि पदार्थ दान आदि करने के लिये निमित्त हैं, उनमें अग्नि विद्युत् और सूर्य्य मुख्य हैं। इसलिये सबको चाहिये कि उनके गुणों का उपदेश करके उनकी स्तुति और उनका उपदेश सुनें और करें। क्योंकि जो पृथिवी आदि पदार्थों में जल-वायु और चन्द्रमा अपने-अपने गुणों के साथ प्रशंसा करने और जानने योग्य हैं, वे क्रियाकुशलता में संयुक्त किये हुए उन क्रियाओं की सिद्धि करानेवाले होते हैं॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मनुष्यै) मनुष्यों के द्वारा (य:) जो (इन्द्र:) अग्नि, बिजली या सूर्य्य (हि) और जिस कारण से  (सहस्रदाव्नाम्)  असंख्यात धन के देने वालों के मध्य में, (क्रतु:) कार्य को सिद्ध करने वाला (भवति) होता है; (वरुण:) यह जल और वायु या चन्द्रमा (च) और  (शंस्यानाम्) प्रशंसनीय और आदरर्णीय पदार्थों  में स्तुति किए जाने योग्य और (क्रतु:)  कार्य को सिद्ध करने वाला (भवति) होता है। (तस्मात्) इसलिए (अयम्) यह (उक्थ्यः)  जो विद्या की सिद्धि के लिए  बोलने में  या पूजा के योग्य है, वह पुण्य आत्मा (अस्ति) है । हमें (इति) ऐसा  (बोध्यम्) जानना  चाहिए॥५॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रः) अग्निर्विद्युत् सूर्य्यो वा (सहस्रदाव्नाम्) यः सहस्रस्यासंख्यातस्य धनस्य दातॄणां मध्ये साधकतमः। अत्र आतो मनिन्० (अष्टा०३.२.७४) अनेन वनिप्प्रत्ययः। (वरुणः) जलं वायुश्चन्द्रो वा (शंस्यानाम्) प्रशंसितुमर्हाणां पदार्थानां मध्ये स्तोतुमर्हः (क्रतुः) करोति कार्य्याणि येन सः। कृञः कतुः। (उणा०१.७७) अनेन 'कृञ'धातोः कतुः प्रत्ययः। (भवति) वर्त्तते (उक्थ्यः) यानि विद्यासिद्ध्यर्थे वक्तुं वाचयितुं वार्हाणि ते साधुः॥५॥
    विषयः- पुनःकथं भूताविन्द्रावरुणावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- मनुष्यैर्य इन्द्रो हि सहस्रदाव्नाम्मध्ये क्रतुर्भवति वरुणश्च शंस्यानाम्मध्ये क्रतुर्भवति तस्मादयमुक्थ्यो ऽस्तीति बोध्यम्॥महर्षिकृतः॥५॥         
         
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद्धेरनुवृत्तिः। यतो यावन्ति पृथिव्यादीन्यन्नादिदानसाधननिमित्तानि सन्ति, तेषां मध्येऽग्निविद्युत्सूर्य्या मुख्या वर्त्तन्ते, ये चैतेषां मध्ये जलवायुचन्द्रास्तत्तद्गुणैः प्रशस्या ज्ञातव्याः सन्तीति विदित्वा कर्मसु सम्प्रयोजिताः सन्तः क्रियासिद्धिहेतवो भवन्तीति॥५॥ 

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    विषय

    ऋतु व उक्थ्य

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) - जितेन्द्रिय पुरुष , भोगासक्त न होने के कारण , अपनी आवश्यकताओं को न्यून रखने के कारण (सहस्त्रदानाम्) - हजारों धनों के दानों का (क्रतुः) - करनेवाला (भवति) - होता है । जब जितेन्द्रियता का अभाव होता है तब मनुष्य की आवश्यकताएँ उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं , आवश्यकताएँ बढ़ने के साथ दान देना सम्भव नहीं रहता । दान की बात तो दूर रही , ऐसा व्यक्ति अन्याय - मागों से धनार्जन का प्रयत्न करता है । जितेन्द्रिय ही दान दे सकता है । यही हजारों की संख्या में धनों का दान करनेवाला होता है । 

    २. (वरुणः) - अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधनेवाला (शंस्यानाम्) - प्रशंसनीय व्यक्तियों में भी (उक्थ्य) - स्तुत्य (भवति) - होता है । जितना - जितना हम अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधते हैं , उतना - उतना ही हमारा जीवन सुन्दर होता चलता है । जीवन का सौन्दर्य बिना व्रतों के सम्भव नहीं । एक जलधारा किनारों के अन्दर चलती हुई सुन्दर प्रतीत होती है , इसी प्रकार मानव - जीवन भी मर्यादाओं में - व्रतों के बन्धन में चलता हुआ सुन्दरतम होता है । वह जीवन प्रशंसनीयों में भी प्रशंसनीय होता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इन्द्र बन हजारों का दान करनेवाले हों और वरुण - अपने को व्रतों में बाँधनेवाले बनकर प्रशस्य जीवनवाले हों । 

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्नि और जल

    भावार्थ

    ( सहस्रदाताम् ) सहस्त्रों ऐश्वर्यो और सुखों के देने वालों में से ( इन्द्रः ) परमेश्वर, अग्नि, विद्युत्, सूर्य, मेघ, राजा यही ( क्रतुः ) क्रियावान्, कुशल एवं ( उक्थः ) प्रशंसायोग्य हैं । और ( शंस्यानाम् ) स्तुति करने योग्यों में से ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर, जल, वायु, चन्द्र और समुद्र ही ( क्रतुः उक्थः भवति ) क्रियावान् और प्रशंसा के योग्य हैं । इति द्वात्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेध्यातिथिः । इन्द्रावरुणौ देवते । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पहिल्या मंत्राप्रमाणे या मंत्रात ‘हि’ या पदाची अनुवृत्ती आहे. जितके पृथ्वी इत्यादी व अन्न इत्यादी पदार्थ दानाचे साधन आहेत, त्यामध्ये अग्नी, विद्युत व सूर्य मुख्य आहेत, त्यांचे गुण जाणून प्रशंसा करावी. त्यात जल, वायू, चंद्र हे प्रशंसा करण्यायोग्य व जाणण्यायोग्य आहेत ते क्रियेमध्ये संप्रयोजित करून क्रियांची सिद्धी करविणारे आहेत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra (fire, sun and electric energy) is one of the givers of a thousand gifts. Varuna (water, air and moon) is one of the adorable celebrities. May our yajnic projects of science and technology be successful and worthy of praise.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of Indra and Varuna are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (manuṣyai)=by men, (ya:)= which, (indra:)=fire, electricity or sun, (hi)=and due to which reason, (sahasradāvnām)=in the midst of giver of enumerable wealth, (kratu:)=one who accomplishes the deed, (bhavati)=becomes, (varuṇa:)=water and air or moon, (ca)=and, (śaṃsyānām)=amidst praiseworthy and respectable substances, (kratu:)=one who accomplishes the deed, (bhavati)=becomes, (tasmāt)=therefore, (ayam)=this, (ukthyaḥ)=those saintly souls who speak for accomplishment of knowledge or are worshipable, (asti)=is, (iti)=such, (bodhyam)=should be known.

    English Translation (K.K.V.)

    Who is the accomplisher of work among the givers of fire, lightning or the Sun and the cause of innumerable riches by men. It is praiseworthy and respected in water and air or moon and praiseworthy and accomplisher of work. That's why he who is worthy of worship or speech for the accomplishment of knowledge, he is a virtuous soul. We should know such.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    From the first mantra there is continued influence of the term ‘hi’ in this mantra as well. All the earth etc. and food etc. are the means for charity etc., among them Agni (Fire), Vidyut (Electricity or thunder) and Surya (Sun) are the main ones. That is why everyone should listen and do their praise and preaching by listening their teaching. Because, among the things like earth, water, air and moon are worthy of being praised and known with their respective qualities; they are the ones who accomplish those deeds efficiently.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of Indra and Varuna is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Indra (fire, electricity or sun) is a giver among the givers of thousand kinds of wealth. Varuna (Water air or moon) is to be praised among those that deserve laudation. With their help, much can be accomplished.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Among all the objects like the earth etc. which are the means of the gift of food and other things, fire, electricity and sun (which are all denoted by the common term Indra) are very prominent. Similarly the water, air and moon (all denoted by the common term Varuna) are praiseworthy on account of their attributes. If they are used in actions with knowledge, they accomplish various purposes. This should be known to all.

    Translator's Notes

    We have already shown on the authority of the Brahmanas and other ancient literature how the word Indra denotes fire, electricity and sun as stated by Rishi Dayananda in his commentary. In Shatapatha 2.3.2.11 it is clearly stated. अंथ यत्रैतत् प्रदीप्तो भवति । उच्चैर्धूमः परमया जूत्या बल्वलीति तर्हि हैष (अग्निः) भातीन्द्रः ।। So bright fire is called Agni. In Shatapath 4.1.3.19 it is stated. यो वैः वायुः स इन्द्रः य इन्द्रः स वायुः (शत०४.१.३.१९) So it is clear that Vayu (air) is denoted by the word Indra. In the Jaimineeyopanishad Brahmana 1.44.5 while explaining the Mantra regarding Indra युक्ताह यस्य हरय: शतादश it is stated सहस्रौं हैते आदित्यस्यरश्मयः (इन्द्र:-आदित्यः ) So it is clear that the word Indra stands here for the sun. In the Shatapath 4.5.5.7 also it is stated :- एष वै शुक्लो य एष (सूर्य:) उ एवेन्द्र (शत० ४. ५. ५. ७ ) Here the shining sun has been called Indra. So it is evident that Rishi Dayananda's interpretation of Indra is well-authenticated and it is not the result of his own imagination, as some critics think. The same is the case with Varuna which Rishi Dayananda has taken here for water, air or moon. For the meaning of the Varuna as water, we have already quoted from the Taittiriya Brahmana 1.6.5.6 अप्सु वै वरुण: ( तैति० १. ६.५.६ ) For air in various forms besides वरुण इति पदनाम ( निघ० ५.४ ) यः प्राणः स वरुण: (ऐत० ४. १० ताण्ड्य ब्रा० २५.१०.१० ) may be quoted where by varuna, Prana (vital air) has been taken. For the meaning of moon also, we have quoted रात्रिर्वरुण: ऐत० ४.१० ) and वारुणी रात्रिः (तैप्ति० १.७.१०.१ ) We may therefore take moon as the lord of the night here.

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