ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र वां॑ निचे॒रुः क॑कु॒हो वशाँ॒ अनु॑ पि॒शङ्ग॑रूप॒: सद॑नानि गम्याः। हरी॑ अ॒न्यस्य॑ पी॒पय॑न्त॒ वाजै॑र्म॒थ्रा रजां॑स्यश्विना॒ वि घोषै॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वा॒म् । नि॒ऽचे॒रुः । क॒कु॒हः । वशा॑न् । अनु॑ । पि॒शङ्ग॑ऽरूपः । सद॑नानि । ग॒म्याः॒ । हरी॑ । अ॒न्यस्य॑ । पी॒पय॑न्त । वाजैः॑ । म॒थ्ना । रजां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । वि । घोषैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वां निचेरुः ककुहो वशाँ अनु पिशङ्गरूप: सदनानि गम्याः। हरी अन्यस्य पीपयन्त वाजैर्मथ्रा रजांस्यश्विना वि घोषै: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वाम्। निऽचेरुः। ककुहः। वशान्। अनु। पिशङ्गऽरूपः। सदनानि। गम्याः। हरी। अन्यस्य। पीपयन्त। वाजैः। मथ्ना। रजांसि। अश्विना। वि। घोषैः ॥ १.१८१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना ययोर्वां पिशङ्गरूपो ककुहो निचेरूरथो वशाननुवर्त्तते तयोः प्रत्येकस्त्वं सदनानि प्रगम्याः। यथाऽन्यस्य हरी वाजैर्घोषैश्च प्रमथ्ना रजांसि वर्द्धयतस्तथा जनास्तौ विपीपयन्त ॥ ५ ॥
पदार्थः
(प्र) (वाम्) युवयोः (निचेरुः) चरन् (ककुहः) सर्वा दिशः (वशान्) वशवर्त्तिनः (अनु) आनुकूल्ये (पिशङ्गरूपः) पिशङ्गं पीतं सुवर्णादिमिश्रितं रूपं यस्य सः (सदनानि) भुवनानि (गम्याः) गच्छेः (हरी) धारणाकर्षणाविव बलपराक्रमौ (अन्यस्य) (पीपयन्त) आप्याययन्ति (वाजैः) वेगादिभिर्गुणैः (मन्था) मन्थानि मथितानि (रजांसि) लोकान् (अश्विना) वायुसूर्यवदध्यापकोपदेशकौ (वि) (घोषैः) शब्दैः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा वायुः सर्वान् वशयति वायुसूर्यो लोकान् धरतः। तथा विद्याद्धर्मौ धृत्वा यूयं सुखिनो भवत ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) पवन और सूर्य के समान अध्यापक और उपदेशको ! जिन (वाम्) तुम्हारा जैसे (पिशङ्गरूपः) पीला सुवर्ण आदि से मिला हुआ रूप है जिसका वह (ककुहः) सब दिशाओं को (निचेरुः) विचरनेवाला (वशान्) वशवर्त्ति जनों को (अनु) अनुकूल वर्त्तता है उन में से प्रत्येक तुम (सदनानि) लोकों को (प्र, गम्याः) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ जैसे (अन्यस्य) और अर्थात् अपने से भिन्न पदार्थ की (हरी) धारण और आकर्षण के समान बल, पराक्रम (वाजैः) वेगादि गुणों और (घोषैः) शब्दों से (मथ्ना) अच्छे प्रकार मथे हुए (रजांसि) लोकों को बढ़ाते हैं, वैसे मनुष्य उनको (वि, पीपयन्त) विशेष कर परिपूर्ण करते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पवन सबको अपने वश में करता है तथा वायु और सूर्य लोक सबको धारण करते हैं, वैसे विद्या धर्म्म को धारण कर तुम भी सुखी होओ ॥ ५ ॥
विषय
वाज, मन्थन, विघोष
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम्) = आप दोनों जैसा (प्रनिचेरु:) = प्रकर्षेण गतिवाला (ककुहः) = श्रेष्ठ,( पिशङ्गरूप:) = तेजस्वी रूपवाला यह प्राण (वशान् अनु) = जितना-जितना हम इसे वश कर पाते हैं उतना (सदनानि) = हमारे अधिष्ठानभूत इन कोशों को (गम्या:) = प्राप्त होता है एक-एक कोश को यह निर्दोष बनाता है और उस उस ऐश्वर्य से परिपूर्ण करता है २. (अन्यस्य) = दूसरे 'अपान' के ये हरी इन्द्रियाश्व (वाजैः) = शक्तियों से मथ्ना ज्ञान के मन्थन
भावार्थ
से तथा विघोषैः = विशिष्ट स्तुतियों के उच्चारण से रजांसि सब लोकों को पीपयन्त आप्यायित करते हैं। शक्तियों से शरीररूप पृथिवीलोक को, विशिष्ट स्तुतियों के उच्चारण से हृदयरूप अन्तरिक्षलोक को तथा ज्ञान- मन्थन से मस्तिष्करूप द्युलोक को ये इन्द्रियाश्व आप्यायित करते हैं । ३. प्राण शरीर को तेजस्विता प्रदान करता है और इसे श्रेष्ठ बनाता है। अपान निर्दोषता प्राप्त कराके सर्वाङ्गीण उन्नति का कारण बनता है ।
विषय
उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) एक दूसरे के हृदय में व्यापक स्त्री पुरुषो ! हे अश्वादि सैन्य के स्वामियो ! जिस प्रकार ( ककुहः वशां अनु ) वृषभ गौ के पीछे कामनावश जाता है उसी प्रकार ( वां ) तुम दोनों में से जो ( निचेरुः ) भोगों का भोक्ता और (ककुहः) सर्वश्रेष्ठ और (पिशङ्गरूपः) सूर्य या सुवर्ण के समान पीले, उज्ज्वल, काञ्चनगौर सुन्दर रूप का है वह ( वशान् अनु ) कामना करने योग्य उत्तम २ पुत्र आदि पदार्थों को लक्ष्य करके (सदनानि) गृहस्थ आदि आश्रमों को ( गम्याः ) जाता है। (वाम् अन्यस्य) तुम दोनों में से प्रत्येक के ( हरी ) मन और इन्द्रियरूप अश्वों को ( रजांसि ) मनोरञ्जन करने वाले नाना राजस भोग और नाना लोक भी ( वाजैः ) ऐश्वर्यों से ( मथना ) हृदय को मथन कर देने वाले आकर्षण से और ( घोषैः ) उत्तम २ वाद्य आदि विविध प्रकार से तृप्त करें और उनकी वृद्धि करें। (२) सूर्य के पक्ष में—सूर्य सब दिशाओं में जाने वाला, पीला, तेजस्वी, ( सदनानि ) राशि गृहों को संक्रमण करता है । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा वायू सर्वांना आपल्या नियंत्रणाखाली ठेवतो व वायू आणि सूर्यलोक सर्वांना धारण करतात तसे विद्या धर्माला धारण करून तुम्ही सुखी व्हा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, tempestuous powers like sun-rays and winds, one chariot of yours, golden of form, goes round conquering the directions of space and reaching the places of your choice. The horses of the other shear through space churning the air with the force of their speed and fill the world with reverberations of their motion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Acquire the virtues of air and solar systems for happiness.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvinau (2) (teachers and preachers)! you are benevolent like the air and the sun. May the golden color car or each one of you traverse at will all different places. Come to our dwellings. The strength and force of upholding and attraction of other powers increase the world speed and other attributes and sounds. So men should help it to grow.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as the air controls all, as the wind and the sun uphold all, so enjoy happiness by upholding knowledge and righteousness.
Foot Notes
(ककुहः) सर्वा: दिश: | ककुह: इति महन्नाम (NG – 3.3) । ककुभ इति दिङ्नाम (NG – 1.6 ) = All directions. ( हरी) धारणाकर्षणाविव बलपराक्रमौ = Force and strength like power of upholding and attraction.
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