ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒त स्या वां॒ रुश॑तो॒ वप्स॑सो॒ गीस्त्रि॑ब॒र्हिषि॒ सद॑सि पिन्वते॒ नॄन्। वृषा॑ वां मे॒घो वृ॑षणा पीपाय॒ गोर्न सेके॒ मनु॑षो दश॒स्यन् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्या । वा॒म् । रुश॑तः । वप्स॑सः । गीः । त्रि॒ऽब॒र्हिषि॑ । सद॑सि । पि॒न्व॒ते॒ । नॄन् । वृषा॑ । वा॒म् । मे॒घः । वृ॒ष॒णा॒ । पी॒पा॒य॒ । गोः । न । सेके॑ । मनु॑षः । द॒श॒स्यन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्या वां रुशतो वप्ससो गीस्त्रिबर्हिषि सदसि पिन्वते नॄन्। वृषा वां मेघो वृषणा पीपाय गोर्न सेके मनुषो दशस्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्या। वाम्। रुशतः। वप्ससः। गीः। त्रिऽबर्हिषि। सदसि। पिन्वते। नॄन्। वृषा। वाम्। मेघः। वृषणा। पीपाय। गोः। न। सेके। मनुषः। दशस्यन् ॥ १.१८१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकोपदेशकविषयमाह।
अन्वयः
हे वृषणा वां रुशतो वप्ससो या गीः स्या त्रिबर्हिषि सदसि नॄन् पिन्वते तां वां वृषा मेघो दशस्यन् गोः सेके न च व्यवहारे मनुषः पीपाय तमुत वयं सेवेमहि ॥ ८ ॥
पदार्थः
(उत) अपि (स्या) सा (वाम्) युवयोः (रुशतः) प्रकाशितस्य (वप्ससः) सुरूपस्य (गीः) वाक् (त्रिबर्हिषि) त्रयो वेदवेत्तारो वृद्धा यस्यां तस्याम् (सदसि) सभायाम् (पिन्वते) सेवते (नॄन्) नायकान् मनुष्यान् (वृषा) (वाम्) युवयोः (मेघः) मेघ इव (वृषणा) दुष्टसामर्थ्यबन्धकौ (पीपाय) आप्याययति वर्द्धयति (गोः) पृथिव्याः (न) इव (सेके) सिञ्चने (मनुषः) मनुष्यान् (दशस्यन्) अभिमतं प्रयच्छन् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्या यदा सत्यं वदन्ति तदा मुखाऽऽकृतिर्मलीनी न भवति यदा मिथ्या वदन्ति तदा मुखं मलीनं जायते। यथा पृथिव्यामौषधानां वर्द्धको मेघस्तथा ये सभासद उपदेश्यांश्च सत्यभाषणेन वर्द्धयन्ति ते सर्वेषां हितैषिणो भवन्ति ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अध्यापकोपदेशक विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषणा) दुष्टों की सामर्थ्य बाँधनेवाले अध्यापकोपदेशको ! (वाम्) तुम दोनों के (रुशतः) प्रकाशित (वप्ससः) रूप की जो (गीः) वाणी है (स्या) वह (त्रिबर्हिषि) तीन वेदवेत्ता वृद्ध जिसमें हैं उस (सदसि) सभा में (नॄन्) अग्रगन्ता मनुष्यों को (पिन्वते) सेवती है और (वाम्) तुम दोनों का जो (वृषा) सेचने में समर्थ (मेघः) मेघ के समान वाणी विषय (दशस्यन्) चाहे हुए फल को देता हुआ (गोः) पृथिवी के (सेके) सेचन में (न) जैसे वैसे अपने व्यवहार में (मनुषः) मनुष्यों की (पीपाय) उन्नति कराता है उसको (उत) भी हम सेवें ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य जब सत्य कहते हैं तब उनके मुख की आकृति मलीन नहीं होती और जब झूठ कहते हैं तब उनका मुख मलीन हो जाता है। जैसे पृथिवी पर ओषधियों का बढ़ानेवाला मेघ है, वैसे जो सभासद् उपदेश करने योग्यों को सत्य भाषण से बढ़ाते हैं, वे सबके हितैषी होते हैं ॥ ८ ॥
विषय
ज्ञान व ध्यान
पदार्थ
१. (उत) = और (स्या) = वह (वाम्) = हे प्राणापानो! आपकी, आपके द्वारा प्राप्त होनेवाली (रुशतः) = देदीप्यमान (वप्सस:) = [सुरूपस्य - द०] तेजस्वी रूपवाले प्रभु की (गी:) = वाणी (त्रिबर्हिर्षि) = जिसमें 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों को उखाड़ फेंका गया है उस (सदसि) = आत्मा के निवास स्थान हृदय में (नॄन्) = उन्नतिशील पुरुषों को (पिन्वते) = आप्यायित करती है। प्राणसाधना के द्वारा इस वेदवाणी के अर्थ का प्रकाश होता है। यह वाणी हमें भी प्रभु के अनुरूप 'देदीप्यमान, तेजस्वी रूपवाला' बनाती है। इस वाणी का प्रकाश उस हृदय में होता है जिसमें से 'काम, क्रोध, लोभ' का उन्मूलन कर दिया गया है। यह उन्मूलन प्राणसाधना के द्वारा ही होता है। २. हे (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापानो! (वाम्) = आपकी-आपकी साधना द्वारा उत्पन्न होनेवाला (मेघः) = धर्ममेघसमाधि का मेघ (वृषा) = हमपर सुखों का वर्षण करता है और (पीपाय) = हमारा उसी प्रकार आप्यायन करता है (न) = जैसे (गो:) = ज्ञान की वाणियों का (सेके) = सेचन होनेपर (मनुष:) = विचारशील पुरुषों को (दशस्यन्) = यह सब सुखों को देनेवाला होता है। प्राणसाधना से बुद्धि के तीव्र होनेपर ज्ञान प्राप्त होता है और मनुष्य का जीवन सुखी होता है। इसी प्रकार प्राणायाम के द्वारा समाधि की स्थिति में पहुँचने पर अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है।
भावार्थ
भावार्थ- मुख्यतया प्राणसाधना के दो लाभ हैं – (क) बुद्धि तीव्र होकर ज्ञान की वाणियों का ग्रहण करती है, (ख) चित्तवृत्ति केन्द्रित होकर समाधि के आनन्द की प्राप्ति का साधन बनती है।
विषय
पक्षान्तर में राजा और परिव्राजक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( वां ) तुम दोनों में से ( रुशतः ) तेजस्वी और (वप्ससः) उत्तम रूपवान् पुरुष की (स्या) वह उत्तम (गीः) वाणी ( त्रि-बर्हिषि ) त्रिलोक के समान तीन मुख्य प्रधान आसनस्थ वेदवेत्ताओं के बने ( सदसि ) धर्म सभा के बीच में (नॄन्-पिन्वते) सब मनुष्यों को सन्तुष्ट करें । (वृषा गोः सेके न) बलवान् सांढ जिस प्रकार गौ के ऊपर वीर्य सेचन करने के अवसर में (पीपाय) अति प्रसन्न होता है और जिस प्रकार ( वृषा मेघः ) वर्षण शील मेघ (गोः सेके न ) पृथ्वी पर जल वर्षाने में ( पीपाय ) सब को तृप्त और प्रसन्न करता है उसी प्रकार ( वां ) तुम दोनों में से ( मेघः वृषा ) वीर्य सेचन में समर्थ वीर्यवान् बलवान् (मनुषः) मनुष्य (दशस्यन्) [वीर्य] दान देता हुआ (पीपाय) स्वयं प्रसन्न हो और सहचरी को भी तृप्त करे, अथवा वीर्यवान् बलवान् पुरुष ( मनुषो दशस्यन् ) उत्तम मनुष्यों को ऐश्वर्य प्रदान करता हुआ (पीपाय) स्वयं भी हृष्ट पुष्ट बना रहे (२) इसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी योग्यता से त्र्यवरा में उत्तम वाणी द्वारा लोगों को ज्ञान से तृप्त सन्तुष्ट करने वाला हो और मेघ के समान ज्ञान प्रदान करता हुआ (गोः सेके न) वाणी के द्वारा ज्ञान वर्षण के अवसर पर सब को तृप्त करे । सब के ज्ञान की वृद्धि करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसे जेव्हा खरे बोलतात तेव्हा त्यांच्या मुखाची आकृती मलीन होत नाही व जेव्हा खोटे बोलतात तेव्हा त्यांचे मुख मलीन होते. जसा मेघ पृथ्वीवर औषधी वाढविणारा असतो तसे सभासद उपदेश करण्यायोग्य लोकांना सत्य वचनाने उन्नत करतात, ते सर्वांचे हितैषी असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And that voice celebrating the brilliant and charming form of your personality strengthens and energises the people performing yajna in the ceremonial hall of three sages seated on holy grass. And the same voice, holy and generous lords, while it blesses the people, may shower you with joy as showers of rain from the heavy clouds overflow the surface of the earth in the rainy season.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of teachers and preachers are stressed again.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mightly teachers and preachers! your speech uttered from your resplendent and beautiful form pleases all in the Assembly, including the three aged knowers of the Vedas. May we serve the person who is like the cloud showering rains for sprinkling the earth and who expresses himself well in his dealings, and thus helps in the progress of all men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
By speaking the truth, the facial appearance of men does not change ugly, while on telling lies, it becomes dirty and deformed. As the cloud waters help in growing of plants and herbs on the earth, so the truth speaking members of the Assembly help other members, to grow by speaking the truth. Indeed, they are the well-wishers of all.
Foot Notes
(रुशतः) प्रकाशितस्य = Resplendent or shining (वप्सस:) सुरूपस्य | वपुरिति रूपनाम (NG – 3.7 ) | वप्सस् is connected with this word found in the Nighantu 3-7) = Of good appearance. (त्निर्वाहषि ) त्नयो वेदवेत्तारी वृद्धा यस्यां तस्याम् = In a great Assembly where there are three aged knowers of the Vedas. The speech is also classified in three-fold as in Nirukta = त्निधा बद्धो वृषभो रोरवीति । महोदेवो मर्त्या आविवेश (Ed.) । (सदसि ) सभायाम् = In the meeting.
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